909. मस्जिद की ज़मीन अन्दरूनी और बेरूनी छत और अन्दरूनी दीवार को नजिस करना हराम है और जिस शख़्स को पता चले कि इनमें से कोई एक मक़ाम नजिस हो गया है तो ज़रूरी है कि उसकी नजासत को फ़ौरन दूर करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मस्जिद की दीवार के बेरूनी हिस्से को भी नजिस न किया जाए और अगर वह नजिस हो जाए तो नजासत का हटाना लाज़िम नहीं लेकिन अगर दीवार का बेरूनी हिस्सा नजिस करना मस्जिद की बे हुरमती का सबब हो तो क़त्अन हराम है और इस क़दर नजासत का ज़ाइल करना कि जिससे बे हुर्मती ख़त्म हो जाए ज़रूरी है।
910. अगर कोई शख़्स मस्जिद को पाक करने पर क़ादिर न हो या उसे मदद की ज़रूरत हो जो दस्तयाब न हो तो मस्जिद का पाक करना उस पर वाजिब नहीं लेकिन यह समझता हो कि अगर दूसरे को इत्तिलाअ देगा तो यह काम हो जायेगा तो ज़रूरी है कि उसे इत्तिलाअ दे।
911. अगर मस्जिद की कोई जगह नजिस हो गई हो जिसे खोदे या तोड़े बग़ैर पाक करना मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि उस जगह को खोदें या तोड़ें जबकि जुज़्वी तौर पर खोदना या तोड़ना पड़े या बे हुर्मती का ख़त्म होना मुकम्मल तौर पर खोदने या तोड़ने पर मौक़ूफ़ हो वर्ना तोड़ने में इश्काल है। जो जगह खोदी गई हो उसे पुर करना और जो जगह तोड़ी गई हो उसे तअमीर करना वाजिब नहीं है लेकिन मस्जिद की कोई चीज़ मसलन ईंट अगर नजिस हो गई हो तो मुम्किन सूरत में उसे पानी से पाक करके ज़रूरी है कि उसकी असली जगह पर लगा दिया जाए।
912. अगर कोई शख़्स मस्जिद को ग़स्ब करे और उसकी जगह घर या ऐसी ही कोई चीज़ तअमीर करे या मस्जिद इस क़दर टूट फ़ूट जाए कि उसे मस्जिद न कहा जाए तब भी एहतियाते मुस्तहब की बिना पर उसे नजिस न करे लेकिन उसे पाक करना वाजिब नहीं।
913. अइम्मा ए अहले बैत (अ0) में से किसी इमाम का हरम नजिस करना हराम है। अगर उनके हरमों में से कोई हरम नजिस हो जाए और उसका नजिस रहना उसकी बे हुर्मती का सबब हो तो उसका पाक करना वाजिब है बल्कि एहतियाते मुस्तहब यह है कि ख़्वाह बे हुर्मती न होती हो तब भी पाक किया जाए।
914. अगर मस्जिद की चटाई नजिस हो जाए तो ज़रूरी है कि उसे धोकर पाक करें और अगर चटाई का नजिस होना मस्जिद की बे हुर्मती शुमार होता हो और वह धोने से ख़राब होती हो और नजिस हिस्से का काट देना बेहतर हो तो ज़रूरी है कि उसे काट दिया जाए।
915. अगर किसी ऐन नजासत या नजिस चीज़ को मस्जिद में ले जाने से मस्जिद की बे हुर्मती हो तो उसका मस्जिदों में ले जाना हराम है बल्कि एहितयाते मुस्तहब यह है कि अगर बे हुर्मती न होती हो तब भी ऐने नजासत को मस्जिद में न ले जाया जाए।
916. अगर मस्जिद में मजलिसे अज़ा के लिये क़िनात तानी जाए और फ़र्श बिछाया जाए और सियाह पर्दे लटकाए जायें और चाय का सामान उसके अन्दर ले जाया जाए तो अगर यह चीज़ें मस्जिद के तक़द्दुस को पामाल न करती हों और नमाज़ पढ़ने में भी माने न होतीं हों तो कोई हरज नहीं।
917. एहतियाते वाजिब यह है कि मस्जिद की सोने से ज़ीनत न करें और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मस्जिद को इंसान और हैवान की तरह जानवरों की तस्वीरों से भी न सजाया जाए।
918. अगर मस्जिद टूट फूट भी जाए तब भी न तो उसे बेचा जा सकता है और नहीं मिल्कियत और सड़क में शामिल किया जा सकता है।
919. मस्जिद के दरवाज़ों, खिड़कियों और दूसरी चीज़ों को बेचना हराम है और अगर मस्जिद टूट फूट जाए तब भी ज़रूरी है कि इन चीज़ों को उसी मस्जिद की मरम्मत के लिये इस्तेमाल किया जाए और अगर उस मस्जिद के काम की न रही हों तो ज़रूरी है कि किसी दूसरी मस्जिद के काम में लाया जाए और अगर दूसरी मस्जिदों के काम की भी न रहीं हो तो उन्हें बेचा जा सकता है और जो रक़म हासिल हो वह बसूरते इम्कान उसी मस्जिद की मरम्मत पर वर्ना दूसरी मस्जिद की मरम्मत पर खर्च की जाए।
920. मस्जिद का तअमीर करना और ऐसी मस्जिद की मरम्मत करना जो मख्दूश हो मुस्तहब है, और अगर मस्जिद इस क़दर मख्दूश हो कि उसकी मरम्मत मुम्किन न हो तो उसे गिरा कर दोबारा तअमीर किया जा सकता है बल्कि अगर मस्जिद टूटी फूटी न हो तब भी उसे लोगों की ज़रूरत की खातिर गिरा कर वसी किया जा सकता है।
921. मस्जिद को साफ़ सुथरा रखना और उसमें चिराग़ जलाना मुस्तहब है और अगर कोई मस्जिद में जाना चाहे तो मुस्तहब है कि खुशबू लगाए और पाकीज़ा क़ीमती लिबास पहने और अपने जूतों के तलवों के बारे में तहक़ीक करे कि कहीं नजासत तो नहीं लगी हुई। नीज़ यह है कि मस्जिद में दाखिल होते वक़्त पहले दायां पांव और बाहर निकलते वक़्त पहले बायां पांव रखे और इसी तरह मुस्तहब है कि सब लोगों से पहले मस्जिदों में आए और सब से बाद में निकले।
922. जब कोई शख़्स मस्जिद में दाखिल हो तो मुस्तहब है कि दो रक्अत नमाज़े तहीयत व एहतिरामे मस्जिद की नीयत से पढ़े और अगर वाजिब नमाज़ या कोई और मुस्तहब नमाज़ पढ़े तब भी काफ़ी है।
923. अगर इंसान मजबूर न हो तो मस्जिद में सोना, दुनियावी कामों के बारे में गुफ़्तुगू करना और कोई काम काज करना और अश्आर पढ़ना जिनमें नसीहत और काम की बात न हो मकरूह है। नीज़ मस्जिद में थूकना, नाक की आलाइश फेंकना और बलग़म थूकना भी मकरूह है बल्कि बाज़ सूरतों में हराम है। और इसके अलावा गुमशुदा (शख़्स या चीज़) को तलाश करते हुए आवाज़ को बलन्द करना भी मकरूह है। लेकिन अज़ान के लिये आवाज़ को बलन्द करने की मुमानिअत नहीं है।
924. दीवाने को मस्जिद में दाखिल होने देना मकरूह है और इसी तरह उस बच्चे को भी दाखिल होने देना मकरूह है जो नमाज़ी के लिये बाइसे ज़हमत हो या एहतिमाल हो कि वह मस्जिद को नजिस कर देगा। इन दो सूरतों के अलावा बच्चे को मस्जिद में आने देने में कोई हरज नहीं। उस शख़्स का भी मस्जिद में जाना मकरूह है जिसने प्याज़, लहसुन या इनसे मुशाबेह कोई चीज़ खाई हो कि जिसकी बू लोगों को नागवार गुज़रती हो।