ज़ख्मी आदमी कैसे वुज़ु करे?
  • शीर्षक: ज़ख्मी आदमी कैसे वुज़ु करे?
  • लेखक: हज़रत आयतुल्लाह सैय्यद अली सीसतानी साहब
  • स्रोत: al-shia.org
  • रिलीज की तारीख: 14:2:24 3-9-1403

जबीरह के अहकाम


ज़ख़्म या टूटी हुई हड्डी पर बाँधी जाने वाली चीज़ और ज़ख़्म पर लगाई जाने वाली दवा को जबीरह कहते हैं।


330 अगर वुज़ू वाले किसी हिस्से पर कोई ज़ख़्म या फोड़ा हो और उसका मुँह खुला हो या हड्डी टूटी हुई हो और उसके लिए पानी नुख़्सान दे न हो तो वुज़ू आम तरीक़े से करना चाहिए।


331 अगर किसी इंसान के चेहरे या हाथों पर कोई ज़ख़्म या फोड़ा हो और उसका मुँह खुला हो, या चेहरे या हाथ की हड्डी टूटी हुई हो और पानी उसके लिए नुक़्सान दे हो तो वुज़ू में उसके चारों तरफ़ का हिस्सा ऊपर से नीचे की तरफ़ आम तरीक़े से धोना चाहिए। और ज़ख़्म वाली जगह पर अगर तर हाथ फेरना नुक़्सान दे न हो तो, उस पर तर हाथ फेरे और बाद में एक पाक कपड़ा उस पर डाल कर गीला हाथ उस कपड़े पर भी फेरे। लेकिन अगर हड्डी टूटी हुई हो तो तयम्मुम करना लाज़िम है।


332 अगर किसी इंसान के सिर के सामने वाले हिस्से या पैर के मसाह करने वाले हिस्से पर कोई ज़ख़्म या फोड़ा हो और उसका मुँह खुला हो या हड्डी टूटी हुई हो और यह ज़ख़्म मसेह की पूरी जगह को घेरे हो जिसकी बिना पर मसह न कर सकता हो या ज़ख़्म की वजह से मसेह के सही व सालिम हिस्से का मसाह करना भी उसकी कुदरत से बाहर हो तो इस हालत में उसके लिए ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर वुज़ू भी करे। और एक पाक कपड़ा ज़ख़्म पर डाल कर हाथ पर मौजूद वुज़ू के पानी की तरी से कपड़े पर मसाह करे।


333 अगर फोड़े या ज़ख़्म या टूटी हुई हड्डी का मुँह किसी चीज़ से बँधा हो और उसको बग़ैर तकलीफ़ के खोला जा सकता हो और पानी भी उसके लिए नुक़्सान दे न हो तो, उसे खोल कर वुज़ू करना ज़रूरी है। चाहे ज़ख़्म धोये जाने वाले हिस्सों पर हो या मसाह किये जाने वाले हिस्सों पर।


334 अगर किसी इंसान के चेहरे या हाथों पर कोई ज़ख़्म हो या हड्डी टूटी हो और वह किसी चीज़ से बँधा हो और उसका खोलना व उस पर पानी डालना नुक़्सान दे हो तो आस पास के जितने हिस्से को धोना मुमकिन हो उसे धोये और जबीरह (जिस कपड़े या चीज़ से उस ज़ख़्म को बाँधा गया है) पर मसाह करे।


335 अगर ज़ख़्म का मुँह न खुल सकता हो और खुद ज़ख्म और वह चीज़ जो उस पर बाँधी गई है पाक हो और ज़ख़्म तक पानी पहुँचाना मुमकिन हो और पानी ज़ख़्म के लिए नुक़्सान दे भी न हो तो ज़रूरी है कि पानी ज़ख़्म के मुँह पर ऊपर से नीचे की तरफ़ पहुँचाया जाये। लेकिन अगर ज़ख़्म या उस पर लगाई गई चीज़ नजिस हो और उसका धोना व ज़ख़्म के मुँह तक पानी पहुँचाना मुमकिन हो और पानी उसके लिए नुक़्सान दे न हो तो ज़रूरी है कि उसे धोये और वुज़ू करते वक़्त ज़ख़्म के मुँह तक पानी पहुँचाये। लेकिन अगर ज़ख़्म तक पानी पहुँचाना मुमकिन न हो या अगर ज़ख़्म नजिस हो और उसे पाक न किया जा सकता हो तयम्मुम करना लाज़िम है।


336 अगर जबीरह वुज़ू वाले किसी एक हिस्से पर हो तो वुज़ू-ए-जबीरह करना ही काफ़ी है । लेकिन अगर जबीरह वुज़ू के तमाम हिस्सों पर हो तो एहतियात की बिना पर ऐसे इंसान के लिए तयम्मुम करना ज़रूरी है और उसे वुज़ू-ए- जबीरह भी करनी चाहिए।


337 यह ज़रूरी नही है कि जबीरह सिर्फ़ उन चीज़ों से ही हो जिन के साथ नमाज़ पढ़ना सही है। बल्कि अगर जबीरह रेशम या उन हैवान के अजज़ा से बना हो जिन का गोश्त खाना हराम है तब भी उस पर मसाह करना जायज़ है।


338 जिस इंसान की हथेली और उंगलियों पर जबीरह हो और वुज़ू करते वक़्त उसने तर हाथ उस पर फेरा हो तो वह सिर और पैर का मसाह इसी तरी से करे।


339 अगर किसी इंसान के पैरों के ऊपर वाले हिस्से पर जबीरह हो लेकिन कुछ हिस्सा उंगलियों की तरफ़ से और कुछ हिस्सा पैर के ऊपर वाले हिस्से की तरफ़ से खुला हो तो जो जगह खुली है उन पर आम तरीक़े से और जहाँ पर जबीरह है वहाँ जबीरह पर मसाह करना ज़रूरी है।


340 अगर चेहरे या हाथों पर कई जबीरह हों तो उनके बीच वाला हिस्सा धोना ज़रूरी है और अगर सिर या पैर के ऊपर वाले हिस्से पर जबीरह हो तो उनके भी बीच वाले हिस्सों का मसाह करना ज़रूरी है। और जहाँ जबीरह हो वहाँ पर जबीरह के अहकाम पर अमल करना ज़रूरी है।


341 अगर जबीरह तयम्मु के हिस्सों पर न हो और ज़ख़्म के आस पास के हिस्सों को मामूल से ज़्यादा घेरे हुए हो और उसे बग़ैर तकलीफ़ के हटाना मुमकिन न हो तो ऐसे इंसान के लिए ज़रूरी है कि तयम्मुम करे। लेकिन अगर जबीरह तयम्मुम के हिस्सों पर हो तो इस सूरत में ववज़ू और तयम्मु दोनों करने चाहिए। और दोनों हालतों में अगर जबीरह का हटाना बग़ैर तकलीफ़ के मुमकिन हो तो उसे हटाना चाहिए। और अगर ज़ख़्म चेहरे या हाथों पर हो तो उसके आस पास की जगह को धोये और अगर सिर या पैर के ऊपर वाले हिस्से पर हो तो उसके आस पास की जगहों का मसाह करे और ज़ख़्म की जगह के मसहे के लिए जबीरह के हगुक्म पर अमल करे।


342 अगर किसी इंसान के वुज़ू के हिस्सों पर न ज़ख़्म हो और न ही उनकी हड्डियाँ टूटी हुई हों, लेकिन किसी दूसरी वजह से पानी उन के लिए नुक़्सान दे हो तो ऐसे इंसान के लिए तयम्मुम करना ज़रूरी है।


343 अगर वुज़ू वाले किसी हिस्से की किसी रग से ख़ून निकल आये और उसे दोना मुमकिन न हो तो तयम्मुम करना ज़रूरी है। लेकिन अगर सिर्फ़ पानी उसके लिए नुक़्सान दे हो तो फिर जबीरहके अहकामपर अमल करना ज़रूरी है।


344 अगर इंसान के बदन पर कोईज्ञ चीज़ चिपक गई हो और वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए उसका उतारना मुमकिन न हो या उसे उतारने में नाक़ाबिले बर्दाश्त तकलीफ़ का सामना करना पड़े तो ऐसे इंसान के लिए ज़रूरी है वह तयम्मुम करे।लेकिन अगर चिपकी हुई चीज़ तयम्मुम वाले हिस्सों पर हो तो इस हालत मेंज़रूरी है कि वुज़ू और तयम्मुम दोनों करे। लेकिन अगर चिपकी हुई चीज़ दवा हो तो वह जबीरह के हुक्म में आती है।


345 ग़ुस्ले मसे मय्यित के अलावा हर तरह के ग़ुस्ल में ग़ुस्ले जबीरह वुज़ू-ए- जबीरह की तरह है। लेकिन एहतियाते लाज़िम यह है कि ्गर किसी इंसान को ग़ुस्ले जबीरह करना है तो वह ग़ुस्ले तरतीबी करे ग़ुस्ले इरतेमासी न करे। और ज़ाहिरे हुक्म यह है कि अगर बदन पर कोई ज़ख़्म या फोड़ा हो तो इस हालत में इंसान को इख़्तियार है कि चाहे ग़ुस्ल करे या तयम्मुम। अब अगर वह ग़ुस्ल को इख़्तियार करे और ज़ख्म या फोड़े पर जबीरह न हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि ज़ख़्म या फोड़े पर पाक कपड़ा रखे और उसके ऊपर मसाह करे । और अगर बदन का कोई हिस्सा टूटा हुआ हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल करे और एहतियातन जबीरह के ऊपर मसाह भी करे और अगर जबीरह के ऊपर मसाह करना मुमकिन न हो या जो जगह टूटी हुई हो वह खुली हुई हो तो तयम्मुम करना ज़रूरी है।


346 जिस इंसान के लिए तयम्मुम करना ज़रूरी हो अगर उसके तयम्मुम के किसी हिस्से पर ज़ख़्म या फोड़ा हो या हड्डी टूटी हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि वह वुज़ू-ए-जबीरह की तरह तयम्मुम-ए- जबीरह करे।


347 जिस इंसान के लिए वुज़ू-ए- जबीरह या गुस्ल-ए- जबीरह कर के नमाज़ पढ़ना ज़रूरी हो तो अगर वह जानता हो कि नमाज़ के आख़िरी वक़्त तक उसकी मजबूरी ख़त्म नही होगी तो वह अव्वले वनक़्त नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन अगर उसे उम्मीद हो कि आख़िरे वक़्त तक उसकी मजबूरी ख़त्म हो जायेगी तो बेहतर यह है कि वह इन्तेज़ार करे और अगर उसकी मजबूरी ख़त्म न हो तो आख़िरे वक़्त में वुज़ू-ए- जबीरह या ग़ुस्ले जबीरह कर के नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर अव्वले वक़्त नमाज़ पढ ले और आख़िरे वक़्त में उसकी मजबूरी ख़त्म हो जाये तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वुज़ू या ग़ुस्ल करे और दोबारा नमाज़ पढ़े।


348 अगर कोई इंसान आँख की बीमारी की वजह से अपनी पलकों को बंद रखता हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि वह तयम्मुम करे।


349 अगर कोई इंसान यह न जानता हो कि उसकी ज़िम्मेदारी तयम्मुमकरने की है या वुज़ू-ए- जबीरह की तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह तयम्मुम और वुज़ू-ए- जबी


350 जो नमाज़ें किसी इंसान ने वुज़ू-ए- जबीरह कर के पढ़ी हों वह सही हैं और इसी वुज़ू के साथ आइन्दा की नमाज़े भी पढ़ सकता है।