बैतुल खला के अहकाम
  • शीर्षक: बैतुल खला के अहकाम
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  • रिलीज की तारीख: 19:16:19 1-9-1403

(म.न.57) इंसान पर वाजिब है कि पेशाब व पख़ाना करते वक़्त और दूसरे मौक़ों पर अपनी शर्म गाहों को बालिग़ अफ़राद से छुपा कर रख़े। चाहे वह बालिग़ अफ़राद माँ, बहन की तरह उसके महरम ही क्योँ न हों, इसी तरह अपनी शर्म गाहों को दिवानों और अच्छे बुरे की तमीज़ रखने वाले बच्चों से भी छुपाये। लेकिन शौहर और बीवी के लिए अपनी शर्म गाहों एक दूसरे से छुपाना लाज़िम नही है।


(म.न.58) लाज़िम नही है कि अपनी शर्म गाह को किसी मख़सूस चीज़ से छुपाया जाये अगर हाथ से भी छुपाले तो काफ़ी है।

*(म.न.59) पेशाब या पख़ाना करते वक़्त एहतियाते लाज़िम की बिना पर न बदन का अगला हिस्सा (यानी पेट और सीना ) क़िब्ले की तरफ़ हो और न ही पुश्त।


*(म.न. 60)अगर पेशाब या पख़ाना करते वक़्त किसी शख़्स के बदन का अगला हिस्सा या पुश्त क़िब्ले की तरफ़ हो और वह अपनी शर्म गाह को क़िब्ले की तरफ़ से मोड़ ले तो यह काफ़ी नही है। अगर उसके बदन का अगला हिस्सा या पुश्त क़िबले की तरफ़ नही है तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर वह अपनी शर्म गाह को रू बा क़िबला या पुश्त बा क़िब्ला न मोड़े।


(म.न. 61) एहतियाते मुसतहब यह है कि इस्तबरा करते वक़्त और पेशाब व पख़ाने के मक़ाम को धोते वक़्त भी बदन का अगला हिस्सा और पुश्त क़िबले की तरफ़ न हो।


*(म.न. 62) अगर कोई शख़्स इस लिए कि नामहरम उसे न देखें रु बा क़िबला या पुश्त बा क़िबला बैठने पर मजबूर हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसे पुश्त बा क़िबला बैठना चाहिए और अगर पुश्त बा क़िबला बैठना मुमकिन न हो तो रू बा क़िबला बैठ जाये। अगर किसी दूसरी मजबूरी की बिना पर भी रू बा क़िबला या पुश्त बा क़िबला बैठने पर मजबूर हो तो तब भी यही हुक्म है।


(म.न. 63) एहतियाते मुसतहब यह है कि बच्चे को पेशाब या पख़ाना कराने के लिए रू बा क़िबला या पुश्त बा क़िबला न बैठाये, लेकिन अगर बच्चा ख़ुद से बैठ जाये तो रोकना वाजिब नही है।


(म.न. 64) चार जगहों पर पेशाब पख़ाना करना हराम है।


1.    बंद गलियों मे जबकि वहाँ के रहने वाले इसकी इजाज़त न हें।
उस ज़मीन पर जो किसी की मिलकियत हो और उसका मालिक वहाँ पर पेशाब पख़ाना करने की इजाज़त न दे।
2.    उन जगहों पर जो किसी ख़ास गिरोह के लिए वक़्फ़ हो जैसे मदरसे।
3.    मोमेनीन की क़बरों के पास जबकि इस से उनकी बेहुरमती होती हो। और यही हुक्म हर उस जगह बारे में है जहाँ पर पेशाब या पख़ाना करने से दीन या मज़हब के मुक़द्देसात की तौहीन होती हो।


(म.न. 65) तीन हालतें ऐसी हैं जिनमें मक़अद ( वह सुराख़ जिससे पख़ाना निकलता है) फ़क़त पानी से पाक होती है।


1.    अगर पाख़ाने के साथ कोई दूसरी निजासत (मिस्ले ख़ून) बाहर आये।
2.    बाहर से कोई दूसरी निजासत मिक़अद पर लग जाये।
3.    मिक़अद को चारों तरफ़ का हिस्सा मामूल से ज़्यादा सन जाये।


इन तीन सूरतों के अलावा मक़अद को या तो पानी से धोया जा सकता है या उस तरीक़े के मुताबिक़ जो बाद में बयान किया जायेगा कपड़े या पत्थर से भी पाक किया जा सकता है अगरचे पानी से धोना ही बेहतर है।


*(म.न. 66) पेशाब का मख़रज (पेशाब के निकलने का सुराख़) पानी के अलावा किसी दूसरी चीज़ से पाक नही होता। अगर पानी कुर के बराबर हो या जारी हो तो पेशाब करने के बाद एक बार एक बार धोना काफ़ी है। लेकिन अगर पानी क़लील हो तो एहतियाते मुसतहब की बिना पर दो बार धोना चाहिए और बेहतर यह है कि तीन बार धोयें।


(म.न. 67) अगर मक़अद को पानी से धोया जाये तो ज़रूरी है कि पख़ाने का कोई ज़र्रा बाक़ी न रहे अलबत्ता अगर रंग या बू बाक़ी रह जाये तो कोई हरज नही है और अगर एक बार में वह जगह इस तरह धुल जाये कि पख़ाना का कोई ज़र्रा बाक़ी न रहे तो दुबारा धोना लाज़िम नही है।


(म.न. 68) पत्थर, ढेला, कपड़ या इन्हीं जैसी दूसरी चीज़े अगर पाक और ख़ुश्क हों तो उनसे मक़अद को पाक किया जा सकता है और अगर इनमे मामूली सी नमी भी हो तो जो मक़अद तक न पहुँचे तो कोई हरज नही है।


(म.न. 69) अगर मक़अद को पत्थर, ढेले या कपड़े से एक बार बिल्कुल साफ़ कर दिया जाये तो काफ़ी है।लेकिन बेहतर यह है कि तीन बार साफ़ किया जाये और जिस चीज़ से साफ़ कर रहे हैं उसके तीन टुकड़े होने चाहिए और अगर तीन टुकड़ों से भी साफ़ न हो तो इतने टुकड़ों को इस्तेमाल करना चाहिए कि मक़अद साफ़ हो जाये। अलबत्ता अगर इतने छोटे टुकड़े बाक़ी रह जायें जो नज़र न आयें तो कोई हरज नही है।


(म.न.70) जिन चीज़ों का एहतराम वाजिब है उन से मक़अद को पाक करना हराम है।(मसलन कापी या किताब का ऐसा काग़ज़ जिस पर अल्लाह या किसी पैग़म्बर का नाम लिखा हो) और मकअद के हड्डी या गोबर से पाक होने में इश्काल है।


(म.न.71) अगर एक शख़्स को शक हो कि उसने मक़अद को पाक किया है या नही तो उस पर लाज़िम है कि उसे पाक करे अगरचे पेशाब, पख़ाना करने के बाद वह उस मक़ाम को हमेशा फ़ौरन पाक करता हो।


*(म.न.72) अगर किसी शख़्स को नमाज़ के बाद शक हो कि नमाज़ से पहले पेशाब या पख़ाने के मक़ाम को पाक किया था या नही तो जो नमाज़ वह पढ़ चुका है सही है लेकिन दूसरी नमाज़ पढ़ने से पहले उस के लिए ज़रूरी है कि उस मक़ाम को पाक करे।