सूर –ए- तौबा की तफसीर 2
  • शीर्षक: सूर –ए- तौबा की तफसीर 2
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  • रिलीज की तारीख: 19:1:59 1-9-1403

ताएफ़ नगर के निकट एक क्षेत्र है जहां हुनैन नाम का युद्ध हुआ।  ताएफ़वासी विशेषकर दो कबीलों एक “हवाज़न” और दूसरे “सक़ीफ़” के नाम से प्रसिद्ध थे। इस्लामी सेना ने जब पवित्र नगर मक्का पर विजय प्राप्त कर ली और इस्लाम तेज़ी से फैलने लगा तो वे भयभीत हो गये और उन्होंने स्वयं से कहा कि भलाई इसी में है कि इससे पहले कि मोहम्मद हम से युद्ध करें हम भारी संख्या के साथ उन पर आक्रमण कर दें। इसके बाद ताएफ़वासियों की सेना मक्का की ओर रवाना हो गयी। जब यह खबर पैग़म्बरे इस्लाम को मिली तो उन्होंने इस्लामी सेना को ताएफ की ओर चलने का आदेश दिया। लगभग १२ हज़ार इस्लामी योद्धा ताएफ़ की ओर बढ़े और उनके साथ पैग़म्बरे इस्लाम भी थे। इस्लामी सेना की संख्या अधिक थी जिसे देखकर इस्लामी सेना के कुछ सैनिक अहं का शिकार हो गये।


भोर में ही पैग़म्बरे इस्लाम ने इस्लामी सेना को हुनैन नामक स्थान की ओर चलने का आदेश दिया कि अचानक हवाज़न क़बीले के सैनिकों ने मुसलमानों पर वाणों की वर्षा कर दी जब मुसलमानों को ताएफ़वासियों के अचानक आक्रमण का सामना हुआ तो कुछ के अतिरिक्त सब भाग गये। इस प्रकार मुसलमानों की पराजय के चिन्ह स्पष्ट हो गये। हज़रत अली अलैहिस्सलाम थोड़े से लोगों के साथ शत्रुओं के मुकाबले में डटे और युद्ध करते रहे। पैग़म्बरे इस्लाम के एक चाचा हज़रत अब्बास और कुछ दूसरे लोगों ने पैग़म्बरे इस्लाम की रक्षा के लिए उन्हें अपने घेरे में ले लिया। पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा अब्बास की आवाज़ बहुत ऊंची थी इसलिए पैग़म्बरे इस्लाम ने उनसे कहा कि वह पास के टीले पर जाकर मुसलमानों से रणक्षेत्र में लौट आने के लिए कहें। मुसलमानों ने जब पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा अब्बास की आवाज़ सुनी तो वे हुनैन की घाटी की ओर लौट आये और उन्होंने चारों ओर से शत्रु की सेना पर आक्रमण आरंभ कर दिया। इस्लामी सेना महान ईश्वर की सहायता से आगे बढ़ रही थी इस प्रकार से कि शत्रु हर ओर से तितर बितर हो गया और शत्रु की सेना के लगभग १०० लोग मारे गये। इस प्रकार मुसलमानों को महत्वपूर्ण सफलता व विजय प्राप्त हुई। जब युद्ध समाप्त हो गया तो ताएफ़वासियों के प्रतिनिधि पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में आये और उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया और पैग़म्बरे इस्लाम ने भी उनसे बहुत प्रेम किया।


महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे तौबा की २५वीं आयत में कहता है” निः संदेह ईश्वर ने बहुत से स्थानों पर और हुनैन के दिन तुम्हारी सहायता की है जबकि जनसंख्या की अधिकता के कारण तुम अहं का शिकार हो गये थे परंतु उससे तुम्हें कोई लाभ नहीं हुआ और ज़मीन अपनी विशालता के साथ तुम्हारे लिए तंग हो गयी थी तो उसके बाद तुम भाग गये”


जिस दिन मुसलमानों की संख्या कम थी महान ईश्वर ने उस दिन भी उन्हें अकेला नहीं छोड़ा और जिस दिन उनकी संख्या अधिक थी और वे अहं का शिकार हो गये तथा उनके अहं से उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ तब भी महान व सर्वसमर्थ ईश्वर ने उनकी सहायता की। बहरहाल एकमात्र महान ईश्वर की सहायता थी जो मुसलमानों की सफलता का कारण बनी।


महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे तौबा की २६वीं आयत में कहता है” उसके बाद ईश्वर ने अपने पैग़म्बर और मोमिनीन पर सुकून व शांति नाज़िल की और उसने अपनी सेना उतार दी जिसे तुमने देखा भी नहीं और उसने काफिरों को दंडित किया और काफिरों की यही सज़ा है”


शांति का नाज़िल करना महान ईश्वर की अनुकंपा है जिसकी सहायता से मनुष्य कठिनतम समस्या व मुश्किल का सामना करता है और अपने भीतर शांति का आभास करता है।


महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि हुनैन जैसे युद्ध से मुसलमानों को पाठ लेना चाहिये कि उन्हें अपनी संख्या के अधिक होने पर अहं नहीं करना चाहिये और एसा न हो कि वह उनके घमंड का कारण बने। केवल जनसंख्या के अधिक होने से कुछ होने वाला नहीं है। महत्वपूर्ण चीज़ महान ईश्वर पर आस्था रखने वाले मनुष्यों का होना है चाहे वे थोड़े ही क्यों न हों। जिस प्रकार थोड़े से लोगों ने हुनैन युद्ध का नक्शा बदल दिया। लोगों की प्रशिक्षा महान ईश्वर पर ईमान, प्रतिरोध और त्याग की भावना के साथ होना चाहिये ताकि उनके हृदय ईश्वरीय शांति से परिपूर्ण हों और वे पर्वत की भांति कठिनाइयों व समस्याओं का मुकाबला कर सकें।


महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे तौबा की आयत नम्बर १०३ में कहता है” हे पैग़म्बर आप इनके माल में से ज़कात अर्थात विशेष राशि लें ताकि इसके माध्यम से आप उन्हें पवित्र और उनका प्रशिक्षण कर सकें और ज़कात लेते समय उनके लिए दुआ करें बेशक उनके लिए आपकी दुआ शांति है और ईश्वर देखने एवं जानने वाला है”


इस आयत में महान ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम को आदेश दिया है कि लोगों के माल का एक भाग ज़कात के रूप में ले लें और पैग़म्बर के इस काम से लोग पवित्र हो जायेंगे। ज़कात देने से लोगों में दुनिया की लालच कम और परलोक के प्रति रुचि अधिक होगी और उनमें दान देने की विशेषता पैदा होगी। पवित्र कुरआन की इस आयत में कहा गया है कि जब लोग अपने माल के एक भाग को ज़कात के रूप में निकालें तो हे पैग़म्बर आप उनके लिए दुआ करें। रवायत एवं इस्लामी इतिहासों में आया है कि लोग अपनी ज़कातों को पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में लाते थे तो पैग़म्बरे इस्लाम उनके लिए दुआ करते थे। आयत में कहा गया है कि पैग़म्बर की दुआ लोगों की शांति का कारण है। क्योंकि इस दुआ की छत्रछाया में लोगों की आत्मा पर ईश्वरीय कृपा व दया की वर्षा होती है और वह उन्हें आत्मिक व वैचारिक शांति प्रदान करती है।


सूरे तौबा की आयत नम्बर १०७ में महान ईश्वर कहता है। कुछ एसे भी लोग हैं जिन्होंने मस्जिद बनाई ताकि नुकसान पहुंचायें, कुफ्र करें ईमान वालों के मध्य फूट डालें और उस व्यक्ति के घात लगाने के लिए ठिकाना बनायें जो इससे पहले ईश्वर और उसके पैग़म्बर से लड़ चुका है वे निश्चिय ही शपथ खायेंगे कि हमने तो केवल अच्छाई के लिए यह कार्य किया है जबकि ईश्वर गवाही देता है कि वे झूठ बोल रहे हैं”


सूरे तौबा में जिन विषयों को पेश और बयान किया गया है उनमें से एक मिथ्याचार है। पवित्र कुरआन की इस आयत में मिथ्याचार का बड़े अच्छे ढंग से चित्रण किया गया है। उदाहरण स्वरूप अबु आमिर नाम का एक व्यक्ति था मदीना में उसका बहुत प्रभाव था। जब पैग़म्बरे इस्लाम मक्के से मदीना पलायन कर गये और दिन प्रतिदिन मुसलमानों की संख्या और शक्ति बढ़ने लगी तो वह मदीने से मक्के भाग गया और पैग़म्बरे इस्लाम से युद्ध करने के लिए अरब क़बीलों से सहायता मांगी।


“ओहद” नाम का युद्ध समाप्त होने के बाद चारों ओर इस्लाम का बोल बाला हो गया और इस्लाम की आवाज़ गूजने लगी जबकि इस युद्ध में मुसलमानों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अबु आमिर इस्लाम की प्रगति को सहन नहीं कर पा रहा था इसलिए उसने रोम के राजा हरक़ल से संपर्क किया ताकि वह मुसलमानों को कुचलने के लिए सैनिक चढ़ाई कर दे। उसने मदीना के मिथ्याचारी मुसलमानों के नाम पत्र लिखा और उन्हें शुभ सूचना दी कि रोम की सेना उनकी सहायता के लिए आयेगी। उसने मदीना के मिथ्याचारियों से कहा कि मदीना में एक केन्द्र का निर्माण करें और वहां से हम अपनी गतिविधियों का संचालन करेंगे। चूंकि मदीना में इस प्रकार के केन्द्र का निर्माण संभव नहीं था इसलिए मुसलमान मिथ्याचारियों ने एक मस्जिद का निर्माण किया ताकि उसकी आड़  में अपने कार्यक्रम को व्यवहारिक बना सकें।


नवीं हिजरी क़मरी में जब पैग़म्बरे इस्लाम कुछ मुसलमानों के साथ तबूक नामक युद्ध के लिए जा रहे थे तब मिथ्याचारी मुसलमानों का एक गुट पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में आया और उसने कहा हमें क़ोबा मस्जिद के निकट एक मस्जिद के निर्माण की अनुमति दें ताकि जो अक्षम व कमज़ोर लोग बरसात की रातों में आपकी मस्जिद में आकर धार्मिक दायित्वों का निर्वाह  नहीं कर सकते वे यहां आकर अपने धार्मिक दायित्वों का निर्वाह करें। पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें मस्जिद के निर्माण का आदेश दे दिया ताकि अपने धार्मिक दायित्वों को निर्वाह वे वहीं पर करें।


पैग़म्बरे इस्लाम जब तबूक नामक युद्ध से वापस लौट रहे थे तो मिथ्याचारी पैग़म्बरे इस्लाम के पास आये और उनसे वहां पर नमाज़ पढ़ाने के लिए कहा। उस समय महान ईश्वर ने अपने विशेष फरिश्ते हज़रत जीब्राईल को संदेश लेकर पैग़म्बरे इस्लाम के पास भेजा और उन्होंने मिथ्याचारियों के वास्तविक लक्ष्य का रहस्योदघाटन कर दिया। महान ईश्वर के आदेश व रहस्योदघाटन के बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने न केवल इस मस्जिद में नमाज़ नहीं पढ़ाई बल्कि मुसलमानों को इस मस्जिद में आग लगाने का आदेश दिया। इसी प्रकार मुसलमानों ने उस स्थान को नगर का कूड़ा करकट फेंकने के स्थान में परिवर्तित कर दिया। इस प्रकार ईश्वरीय रहस्योदघाटन से मिथ्याचारियों की योजना पर पानी फिर गया।


महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे तौबा की आयत नम्बर १०८वीं  में इस विषय पर अधिक बल देता है और अपने पैग़म्बर को स्पष्ट आदेश देता है कि वह इस मस्जिद में उपासना न करें बल्कि वह उस मस्जिद में नमाज़ पढ़ें जिसका आधार उपासना के लिए रखा गया हो न कि उस मस्जिद में जिसकी बुनियाद षडयंत्र और लोगों के मध्य फूट डालने के लिए रखी गयी हो।


महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे तौबा की १०९वीं आयत में कहता है कि फिर क्या वह अच्छा है जिसने अपने भवन की आधारशिला ईश्वर के भय और उसकी खुशी पर रखी है या वह जिसने अपने भवन की आधारशिला किसी खाई की खोखली कगार पर जो गिरने वाली हो फिर वह शीघ्र ही उसे लेकर नरक में जा गिरेगा? ईश्वर अत्याचारी क़ौम का मार्गदर्शन नहीं करता”


महान ईश्वर ने पवित्र कुरआन की इस आयत में जो उपमा दी है वह इस बात की स्पष्ट सूचक है कि मिथ्याचारियों का काम बहुत कमज़ोर होता है जबकि मोमिनों का कार्य मज़बूत व सुदृढ़ होता है। मिथ्याचारियों का जो कार्य होता है वह उस इमारत की भांति है जिसका निर्माण नदी के किनारे किया गया हो और बाढ़ उसे किसी भी समय गिरा सकती है। इस प्रकार मिथ्याचारियों ने मस्जिदे ज़ेरार का जो निर्माण किया था उसकी कहानी समस्त कालों के मुसलमानों के लिए पाठ है कि वे केवल विदित को न देखें। मिथ्याचार किसी भी रूप में हो सकता है वह धार्मिक रूप धारण करके भी इस्लाम और मुसलमानों को क्षति पहुंचा सकता है किन्तु वास्तविक मुसलमान हर आवाज़ का फौरन सकारात्मक उत्तर नहीं देता है बल्कि वह सोच विचार करता है। उसे होशियार , जानकार, जागरुक और अनुभवी होना चाहिये। दूसरा महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि मुसलमानों के मध्य एकता इतना महत्वपूर्ण है कि अगर विदित में मस्जिद भी हो और उसका निर्माण लोगों के मध्य फूट डालने के लिए किया गया हो तो उसे गिरा देना चाहिये। इस प्रकार की इमारत मस्जिद नहीं बल्कि शैतान का घर है।