पहली तारीख़ साबित होने का तरीक़ा
  • शीर्षक: पहली तारीख़ साबित होने का तरीक़ा
  • लेखक: हज़रत आयतुल्लाह सैय्यद अली सीसतानी साहब
  • स्रोत:
  • रिलीज की तारीख: 0:37:30 2-9-1403

(1739) महीने की पहली तारीख़ निम्न लिखित चार चीज़ों से साबित होती हैः


(1) इंसान खुद चाँद देखे।


(2) एक ऐसा गिरोह जिस के कहने पर यक़ीन या इतमिनान हो जाये यह कहे कि हमनेचाँद देखा है और इस तरह हर वह चीज़ जिस की बदौलत यक़ीन या इतमीनान हो जाये।


(3) दो आदिल मर्द यह कहें कि हम ने रात को चाँद देखा है लेकिन अगर वह चाँदकी हालत अलग अलग बयान करें तो पहली तारीख़ साबित नही होगी। और अगर उन की गवाही मेंइख़तेलाफ़ हो तब भी यही हुक्म है। अगर उस के हुक्म में इख़तेलाफ़ हो मसलन शहर केबहुत से लोग चाँद देखने की कोशिश करें और उन लोगों में से दो अदिल चाँद देखने कादावा करें और दूसरों को चाँद नज़र न आये हालाँकि उन लोगों में दो और अदिल आदमी ऐसेहों जो चाँद की जगह पहचानते हों, निगाह की तेज़ी और दीगर खुसूसियात में उन पहले दोअदिल अदमियों की मानिंद हों (और चाँद देखने का दावा न करें) तो एसी सूरत में दोआदिल अदमियों की गवाही से महीने की पहली तारीख़ साबित नही होगी।


(4) शाबान की पहली तारीख़ से तीस दिन गुज़र जायें जिन के गुज़रने पर माहेरमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख़ साबित हो जाती है और रमज़ानुल मुबारक की पहलीतारीख़ से तीस दिन गुज़र जायें जिन के गुज़रने पर शव्वाल की पहली तारीख़ साबित होजाती है।


(1740) हाकिमे शरअ़ के हुक्म से महीने की पहली तारीख़ साबित नही होती और एहतियात की रिआयत करना अवला है।


(1741) मुनज्जिमों की पेशीन गोई से महीने की पहली तारीख़ साबित नहीं होती लेकिन अगर इंसान को उन के कहने से यक़ीन या इतमिनान हो जाये तो ज़रूरी है कि उस पर अमल करे।


(1742) चाँद का असमान पर बलंद होना या उस का देर से ग़ुरूब होना इस बात की दलील नहीं कि इस से पहली रात चाँद रात थी और इसी तरह अगर चाँद के गिर्द हल्क़ा हो तो यह इस बात की दलील नही है कि पहली का चाँद गुज़िश्ता रात निकला है।


(1743) अगर किसी शख्स पर माहे रमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख़ साबित न हो और वह रोज़ा न रखे लेकिन बाद में साबित हो जाये कि ग़ुज़िश्ता रात ही चाँद रात थी तो ज़रूरी है कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे।


(1744) अगर किसी शहर में महीने की पहली तारीख़ साबित हो जाये तो दूसरे शहरों में भी कि जिन का उफ़ुक़ उस शहर से मुत्ताहिद हो महीने की पहली तारीख़ होती है। यहाँ पर उफ़ुक़ के मुत्ताहिद होने से मुराद यह है कि अगर पहले शहर में चाँद दिखाई दे तो दूसरे शहर में भी अगर बादल की तरह कोई रुकावट न हो तो चाँद दिखीई देता है।


(1745) महीने की पहली तारीख़ टेली गिराम (और टेलेक्स या फ़ेक्स) से साबित नही होती सिवाए इस सूरत के कि इंसान को इल्म हो कि यह पैग़ाम दो आदिल मर्दों की शहादत की रू से या किसी ऐसे तरीक़े से आया है जो शरअन मोतबर है।


(1746) जिस दिन के मोताअल्लिक़ इंसान को इल्म न हो कि रमज़ानुल मुबारक का अख़री दिन है या शव्वाल का पहला दिन, इस दिन ज़रूरी है कि रोज़ा रखे लेकिन अगर दिन ही दिन में उसे पता चल जाये कि आज यकुम शव्वाल (रोज़े ईद) है तो ज़रूरी है कि रोज़ा अफ़तार कर ले।


(1747) अगर कोई शख्स क़ैद में हो और माहे रमज़ान के बारे में यक़ीन न कर सके तो ज़रूरी है कि गुमान करे लेकिन अगर क़वी गुमान पर अमल कर सकता हो तो ज़ईफ़ गुमान पर अमल नही कर सकता और अगर गुमान पर अमल मुमकिन न हो तो ज़रूरी है कि जिस महीने के बारे में एहतेमाल हो कि रमज़ान है उस महीने में रोज़ा रखे लेकिन ज़रूरी है कि वह उस महीन को याद रखे। चुनाचे बाद में उसे एहतेमाल हो कि वह माहे रमज़ान या उस के बाद का ज़माना था तो उस के ज़िम्मे कुछ नहीं है। लेकिन अगर मालूम हो कि माहे रमज़ान से पहले का ज़माना था तो ज़रूरी है कि रमज़ान के रोज़ों की कज़ा करे।