इज़्देवाजी रिश्ते के तहफ़्फ़ुज़ के लिये इस्लाम ने दो तरह के इन्तेज़ामात किये हैं: एक तरफ़ इस रिश्ते की ज़रूरत, अहमीयत और उसकी सानवी शक्ल की तरफ़ इशारा किया और दूसरी तरफ़ उन तमाम रास्तों पर पाबंदी आएद कर दी जिसकी बेना पर यह रिश्ता ग़ैर ज़रूरी या ग़ैर अहम हो जाता है और मर्द को औरत या औरत को मर्द की ज़रूरत नही रह जाती है। इरशाद होता है:
“وَلاَ تَقْرَبُواْ الزِّنَى إِنَّهُ كَانَ فَاحِشَةً وَسَاءَ سَبِيلاً” (सूरह इसरा 32)
“और ख़बरदार ज़िना के क़रीब भी मत जाना कि यह खुली हुई बेहयाई है और बदतरीन रास्ता है।”
इस इरशादे गिरामी में ज़िना के दोनों मफ़ासिद की वज़ाहत की गयी है कि इज़्देवाज़ के मुमकिन होते हुए और उसके क़ानून के रहते हुए ज़िना और बदकारी एक खुली हुई बेहयाई है कि यह तअल्लुक़ उन्ही औरतों से क़ाएम किया जाए जिनसे अक़्द हो सकता है तो भी क़ानून से इन्हेराफ़ और इफ़्फ़त से खेलना एक बेग़ैरती है और अगर उन औरतों से क़ाएम किया जाये जिनसे अक़्द मुमकिन नही है और उनका कोई मुक़द्दस रिश्ता पहले से मौजूद है तो यह मज़ीद बेहयाई है कि इस तरह उस रिश्ते की भी तौहीन होती है और उसका तक़द्दुस भी पामाल हो जाता है।
फिर मज़ीद वज़ाहत के लिये इरशाद होता है:
“إِنَّ الَّذِينَ يُحِبُّونَ أَن تَشِيعَ الْفَاحِشَةُ فِي الَّذِينَ آمَنُوا لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ”(सूरह नूर20)
“जो लोग इस अम्र को दोस्त रखते हैं कि साहिबाने ईमान के दरमीयान बदकारी और बेहयाई की एशाअत हो उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है”
जिसका मतलब यह है कि इस्लाम इस क़िस्म के जराइम की उमूमीयत और उनका इश्तेहार दोनों को नापसंद करता है कि इस तरह एक इंसान की ईज़्ज़त भी ख़तरे में पड़ जाती है और दूसरी तरफ़ ग़ैर मुतअल्लिक़ अफ़राद में ऐसे जज़्बात बेदार हो जाते हैं और उनमें जराइम को आज़माने और इनका तजरूबा करने का शौक़ पैदा होने लगता है। जिस का वाज़ेह नतीजा आज हर निगाह के सामने है कि जबसे फ़िल्मों और टी वी के इस्क्रीन के ज़रीये जिन्सी मसाइल की इशाअत शुरु हो गयी है हर क़ौंम में बेहयाई में इज़ाफ़ा हो गया है और हर तरफ़ उसका दौर दौरा हो गया है और हर शख़्स में उन तमाम हरकात का ज़ौक व शौक़ बेदार हो गया है जिनका मुज़ाहिरा सुबह व शामक़ौम के सामने किया जाता है और उसका बदतरीन नतीजा यह हुआ कि मग़रिबी मुआशरे में शाहराहे आम पर वह हरकतें ज़हूर पज़ीर हो रही हैं जिन्हे निस्फ़े शब के बाद फ़िल्मों में पेश किया जाता है और अपनी दानिस्त में अख़्लाक़ियात का मुकम्मल लिहाज़ रखा जाता है और हालात इस अम्र की निशानदही कर रहे है कि मुस्तक़बिल इससे ज़्यादा बदतरीन और भयानक हालात लेकर आ रहा है और इंसानीयत मज़ीद ज़िल्लत के किसी गड्डे में गिरने वाली है। क़ुरआने मजीद ने उन्ही ख़तरात के पेशे नज़र साहिबाने ईमान के दरमीयान इस तरह की इशाअत को ममनूअ और हराम क़रार दे दिया था कि एक दो अफ़राद का इन्हेराफ़ सारे समाज पर असर अंदाज़ न हो और मुआशरा तबाही व बर्बादी का शिकार न हो। रब्बे करीम हर साहिबे ईमान को इस बला से महफ़ूज़ रखे।
तअददुदे इज़्देवाज
दौरे हाज़िर का हस्सास तरीन मौज़ू तअददुदे इज़्देवाज का मौज़ू है जिसे बुनियाद बनाकर मद़रिबी दुनिया ने औरतों को इस्लाम के ख़िलाफ़ ख़ूब इस्तेमाल किया है और मसलमान औरत को भी यह बावर कराने की कोशिश की है कि तअददुदे इज़्देवाज का क़ानून औरतों के साथ नाइंसाफ़ी है और उनकी तहक़ीर व तौहीन का बेहतरीन ज़रीया है। गोया औरत अपने शौहर की मुकम्मल मुहब्बत की भी हक़दार नही हो सकती है और उसे शौहर की आमदनी की तरह उसकी मुहब्बत को भी मुख़्तलिफ़ हिस्सों में बाटना पड़ेगा और आख़िर में जिस क़दर हिस्सा अपनी क़िस्मत में लिखा होगा उसी पर इक्तेफ़ा करना पड़ेगी।
औरत का मेज़ाज हस्सास होता है लिहाज़ा उस पर इस तरह की हर तक़रीर बाक़ाएदा तौर पर असर अंदाज़ हो सकती है। और यही वजह है कि मुसलमान मुफ़क्केरीन ने इस्लाम और मग़रिब को यकजा करने के लिये और अपने ज़अमे नाक़िस में इस्लाम को बदनाम करने से बचाने के लिये तरह तरह की तावीलें की हैं और नतीजे के तौर पर यह ज़ाहिर करना चाहा है कि इस्लाम ने यह क़ानून सिर्फ़ मर्दों की तसकीने क़ल्ब के लिये बना दिया है वर्ना इस पर अमल करना मुमकिन नही है और न इस्लाम यह चाहता है कि कोई मुसलमान इस क़ानून पर असल करे और इस तरह औरतों के जज़्बात को मजरूह बनाये। इन बेचारे मुफ़क्केरीन यह सोचने की भी ज़हमत गवारा नही की है कि इस तरह अलफ़ाज़े क़ुरआन की तो तावील की जा सकती है और क़ुरआन को तो मग़रिब नवाज़ क़ानून साबित किया जा सकता है। लेकिन इस्लाम के सरबराहों और बुजुर्गों की सीरत का क्या होगा जिन्होने अमली तौर पर इस क़ानून पर अमल किया है और एक वक़्त में मुतअददिद बीवीयाँ रखी हैं जबकि उनके ज़ाहिरी इक़तेसादी हालात भी ऐसे नही थे जैसे हालात आजकल के बेशूमार मुसलमानों को हासिल हैं। और उनके किरदार में किसी क़दर अदालत और इंसाफ़ क्यों न फ़र्ज़ कर लिया जाये औरत की फ़ितरत का तब्दील होना मुमकिन नही है और उसे यह एहसास बहरहाल रहेगा कि मेरे शौहर की तवज्जो या मुहब्बत मेरे अलावा किसी दूसरी ख़वातीन से भी मुतअल्लिक़ है।
मसले के तफ़सीलात में जाने के लिये बड़ा वक़्त दरकार है। इज्माली तौर पर सिर्फ़ कहा जा सकता है कि इस्लाम के ख़िलाफ़ यह महाज़ उन लोगों ने जिन्के यहाँ औरत से मुहब्बत का कोई शोअबा ही नही है औक उनके निज़ाम में शौहर या ज़ौजा की अपनाईय का कोई तसव्वुर ही नही है। यह और बात है कि उनकी शादी को लव मैरेज से ताबीर किया जाता है लेकिन यह अंदाज़े शादी ख़ुद इस बात की अलामत है कि इंसान ने अपनी मुहब्बत के मुख़्तलिफ़ मर्कज़ बनाये हैं। और आख़िर में क़ाफ़िला ए जिन्स को एक मर्कज़ पर ठहरा दिया है और यही हाल उस औरत का है जिसने इस अंदाज़ से अक़्द किया है। ज़ाहिर है कि ऐसे हालात में उस ख़ालिस मुहब्बत का कोई तसव्वुर ही नही हो सकता जिसका इस्लाम ले मुतालिबा किया जा रहा है।
इसके अलावा इस्लाम ने तो बीवी के अलावा किसी औरत से मुहब्बत को जाएज़ भी नही रखा है और बीवीयों की तादात भी महदूद रखी है और अक़्द के शराएत भी रख दिये हैं। मग़रिबी मुआशरे में आज भी यह क़ानून आम है कि हर मर्द की ज़ौजा सिर्फ़ एक ही होगी चाहे उसकी महबूबा किसी क़दर भी हों। सवाल यह पैदा होता है कि यह महबूबा मुहब्बत के अलावा किसी और रिश्ते से पैदा होती है? और अगर मुहब्बत ही से पैदा होती है तो यह मुहब्बत की तक़सीम के अलावा क्या कोई और शय है?हक़ीक़ते अम्र यह है कि इज़्देवाज की ज़िम्मेदीरीयों और घरेलू ज़िन्दगी के फ़राएज़ से फ़रार करने के लिये मग़रिब ने अय्याशी का नया रास्ता निकाला है और औरत को जिन्से सरे बाज़ार बना दिया है, और यह ग़रीब आज भी ख़ुश है कि मग़रिब ने हमें हर तरह का इख़्तियार दिया है और इस्लाम ने पाबंद बना दिया है।
यह सही है कि अगर किसी बच्चे को दरिया किनारे मौज़ों का तमाशा करते हुए छलाँग लगाने का इरादा करे और छोड़ दीजीए तो यक़ीनन ख़ुश होगा कि आपने उसकी ख़्वाहिश का ऐहतेराम किया है और उसके जज़्बात पर पाबंदी आएद नही की है चाहे उसके बाद डूब कर मर ही क्यों न जाये। लेकिन अगर उसे रोक दिया जायेगा तो वह यक़ीनन नाराज़ हो जायेगा चाहे उसमें ज़िन्दगी का राज़ ही मुज़मर क्यों न हो। मग़रिबी औरत की सूरते हाल इस मसले में बिल्कुल ऐसी ही है कि उसे आज़ादी की ख़्वाहिश है और वह हर तरह की आज़ादी को इस्तेमाल करना चाहती है और करती है। लेकिन जब मुख़्तलिफ़ अमराज़ में मुब्तला होकर दुनिया के लिये नाक़ाबिले तवज्जो हो जाती है और कोई इज़हारे मुहब्बत करने वाला नही मिलता है तो उसे अपनी आज़ादी के नुक़सानात का अंदाज़ा होता है। लेकिन उश वक़्त मौक़ा हाथ से निकल चुका होता है और इंसान के पास कफ़े अफ़सोस मलने के अलावा कोई चारा ए कार नही होता है।
मसला ए तअददुदे इज़्देवाज पर संजीदगी से ग़ौर किया जाये तो यह एक बुनियादी मसला है जो दुनिया के बेशूमार मसाइल का हल है और हैरत अंगेज़ बात यह है कि दुनिया की बढ़ती हुई आबादी और ग़ज़ा की क़िल्लत को देखकर क़िल्लते औलाद और ज़ब्ते तौलीद का अहसास तो तमाम मुफ़क्केरीन के दिल में पैदा हुआ लेकिन औरतों की कसरत और मर्दों की क़िल्लत से पैदा होने वाले मुश्किलात को हल करने का ख़्याल किसी के ज़हन में नही आया।
दुनिया की आबादी के आदाद व शूमार के मुताबिक़ अगर यह बात सही है कि औरतों का आबादी मर्दों से ज़्यादा है तो एक बुनियादी सवाल यह पैदा होता है कि इस आबादी का अंजाम क्या होगा। उसके लिये एक रास्ता यह है कि उसे घुट घुट कर मरने दिया जाये और उसके जिन्सी जज़्बात का कोई इन्तेज़ाम न किया जाये यह काम जाबिराना सियासत तो कर सकती है लेकिन करीमाना शरीअत नही कर सकती है। और दूसरा रास्ता यह है कि उसे अय्याशीयों के लिये आज़ाद कर दिया जाये और किसी भी शक्ल में अपनी जिन्सी तसकीन का इख़्तेयार दे दिया जाये। यह बात सिर्फ़ क़ानून की हद तक तो तअददुदे इज़देवाद से मुख़्तलिफ़ है लेकिन अमली ऐतबार से तअद्दुदे इज़्देवाज ही की दूसरी शक्ल है कि हर शख़्स के पास एक औरत ज़ौजा के नाम से होगी और एक किसी और नाम से होगी, और दोनों में सुलूक, बर्ताव और मुहब्बत का फ़र्क़ रहेगा कि एक उसकी मुहब्बत का मर्कज़ बनेगी और एक उसकी ख़्वाहिश का। इंसाफ़ से ग़ौर किया जाये कि यह क्या दूसरी औरत की तौहीन नही है कि उसे निसवानी ऐतराम से महरूम करके सिर्फ़ जिन्सी तसकीन तक महदूद कर दिया जाये और उस सूरत में यह इमकान नही पाया जाता है और ऐसे तजरूबात सामने नही हैं कि इज़ाफ़ी औरत ही असली मर्कज़े मुहब्बत क़रार पाये और जिसे मर्कज़ बनाया था उसकी मर्कज़ीयत का ख़ात्मा हो जाये।
बाज़ लोगों ने इस मसले का यह हल निकालने की कोशिश की है कि औरतों की आबादी यक़ीनन ज़्यादा है लेकिन जो औरतें जो इक़्तेसादी तौर पर मुतमईन होती हैं उन्हे शादी की ज़रूरत नही होती है और इस तरह दोनों का औसत बराबर हो जाता है और तअद्दुद की कोई ज़रूरत नही रह जाती है। लेकिन यह तसव्वुर इन्तेहाई जाहिलाना और अहमक़ाना है और यह दीदा व दानिस्ता चश्मपोशी के मुरादिफ़ है कि शौहर की ज़रूरत सिर्फ़ सिर्फ़ मुआशी बुनियादों पर होती है और जब मुआशी हालात साज़गार होते हैं तो शौहर की ज़रूरत नही रह जाती है हालाँकि इसके बिलकुल बर अक्स है। परेशानहाल औरत तो किसी वक़्त हालात में मुब्तला होकर शौहर की ज़रूरत के अहसास से ग़ाफ़िल हो सकती है। लेकिन मुतमईन औरत के पास तो इसके अलावा कोई मसला ही नही है, वह इस बुनियादी मसले से किस तरह ग़ाफ़िल हो सकती है।
इस मसले का दूसरा रूख़ यह भी है कि मर्दों और औरतों की आबादी के तनासुब से इंकार कर दिया जाये और दोनों को बराबर तसलीम कर लिया जाये लेकिन एक मुश्किल बहरहाल पैदा होगी कि फ़सादात और आफ़ात में आम तौर पर मर्दों ही की आबादी में कमी पैदा होती है और इस तरह यह तनासुब हर वक़्त ख़तरे में रहता है और फिर बाज़ मर्दों में यह इस्तेताअत नही होती है कि वह औरत की ज़िन्दगी का बोझ उठा सकें। यह और बात है कि औरत की ख़्वाहिश उनके दिल में भी पैदा होती है इसलिये कि जज़्बात मआशी हालात की पैदावार नही होते हैं। उनका सरचश्मा इन हालात से बिलकुल अलग है और उनकी दुनिया का क़यास इस दुनिया पर नही किया जा सकता है। ऐसी सूरत में मसले का एक ही हल रह जाता है कि जो साहिबाने दौलत व सरवत व इस्तेताअत हैं उन्हे मुख़्तलिफञ शादीयों पर आमादा किया जाये और जो ग़रीब और नादार हैं और मुस्तक़िल ख़र्च बर्दाश्त नही कर सकते हैं उनके लिये ग़ैर मुस्तक़िल इन्तेज़ाम किया जाये और सबकुछ क़ानून के दायरे में हो। मग़रिबी दुनिया की तरह लाक़ानूनीयत का शिकार न हो कि दुनिया की हर ज़बान में क़ानूनी रिश्ते को इज़्देवाज और शादी से ताबीर किया जाता है। और ग़ैर क़ानूनी रिश्ते को अय्याशी कहा जाता है। इस्लाम हर मसले को इंसानीयतस, शराफ़त और क़ानून की रोशनी में हल करना चाहता है और मग़रिबी दुनिया क़ानून और लाक़ानूनीयत में इम्तेयाज़ की क़ाएल नही है। हैरत की बात है कि जो लोग सारी दुनिया में अपनी क़ानून परस्ती का ढँढोरापीटते हैं। वह जिन्सी मसले में इस क़दर बेहिस हो जाते हैं कि यहाँ किसी क़ानून का अहसास नही रह जाता है और मुख़तलिफ़ क़िस्म के ज़लील तरीन तरीक़े भी बर्दाश्त कर लेते हैं जो इस बात की अलामत है कि मग़रिब एक जिन्स ज़दा माहौल है जिसने इंसानीयत का ऐहतराम तर्क कर दिया है और वह अपनी जिन्सीयत ही को ऐहतेरामे इंसानीयत का नाम देकर अपने ऐब की पर्दापोशी करने की कोशिश कर रहा है।
बहरहाल क़ुरआन ने इस मसले पर इस तरह रौशनी डाली है:
“وَإِنْ خِفْتُمْ أَلاَّ تُقْسِطُواْ فِي الْيَتَامَى فَانكِحُواْ مَا طَابَ لَكُم مِّنَ النِّسَاء مَثْنَى وَثُلاَثَ وَرُبَاعَ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلاَّ تَعْدِلُواْ”(सूरह निसा आयत 3)
“और अगर तुम्हे यह ख़ौफ़ है कि यतीमों के बारे में इंसाफ़ न कर सकोगे तो जो औरतें तुम्हे अच्छी लगें उनसे अक़्द करो दो तीन चार। और अगर ख़ौफ़ है कि उनमें भी इंसाफ़ न कर सकोगे तो फिर या जो तुम्हारी कनीज़ें है।”
आयते शरीफ़ा से साफ़ ज़ाहिर होता है कि समाज के ज़हन में एक तसव्वुर था कि यतीमों के साथ अक़्द करने में इस सुलूक का तहफ़्फ़ुज़ मुश्किल हो जाता है जिसका मुतालेबा उसके बारे में किया गया है तो क़ुरआन ने साफ़ वाज़ेह कर दिया कि अगर यतीमों के बारे में इंसाफ़ मुश्किल है और उसके ख़त्म हो जाने का ख़ौफ़ और ख़तरा है तो ग़ैर यतीम अफ़राद में शादीयाँ करो और इस मसले में तुम्हे चार तक आज़ादी दे दी गयी है कि अगर इंसाफ़ कर सको तो चार तक अक़्द कर सकते हो। हाँ अगर यहाँ भी इंसाफ़ बरक़रार न रहने का ख़ौफ़ है तो फिर एक ही पर इक्तेफ़ा करो और बाक़ी कनीज़ों से इस्तेफ़ादा करो।
इसमें कोई शक नही है कि तअद्दुदे इज़्देवाज में इंसाफ़ की क़ैद हवसरानी के ख़ात्मे और क़ानून की बरतरी की बेहतरीन अलामत है और इस तरह औरत के वक़ार व ऐहतराम को मुकम्मल तहफ़्फ़ुज़ दिया गया है लेकिन इस सिलसिले में यह बात नज़र अंदाज़ नही होनी चाहिये कि इंसाफ़ का वह तसव्वुर बिलकुलबेबुनियाद है जो हमारे समाज में राएज हो गया है और जिसके पेशेनज़र तअद्दुदे इज़्देवाज को सिर्फ़ एक नाक़ाबिले अमल फ़ारमूला क़रार दे दिया गया है। कहा यह जाता है कि इंसाफ़ मुकम्मल मसावात है और मुकम्मल मसावात बहरहाल मुमकिन नही है इसलिये कि नई औरत की बात और होती है और पुरानी औरत की बात और होती है, और दोनों के साथ मुसावीयाना बर्ताव नामुमकिन है। हालाँकि यह तसव्वुर भी एक जाहिलाना तसव्वुर है। इंसाफ़ के मायनी सिर्फ़ यह हैं कि हर साहिबे हक़ को उसका हक़ दे दिया जाये जिसे शरीयत की ज़बान में बाजिबात की पाबंदी और हराम से परहेज़ से ताबीर किया जाता है। इससे ज़्यादा इंसाफ़ का कोई मफ़हूम नही है। बेनाबर ईन अगर इस्लाम ने चार औरतों में हर औरत की एक रात क़रार दी है तो इससे ज़्यादा का मुतालेबा करना नाइंसाफ़ी है। घर में रात न ग़ुज़ारना नाइंसाफ़ी नही है। इसी अगर इस्लाम ने फ़ितरत के ख़िलाफ़ नई और पुरानी ज़ौजा को यकसाँ क़रार दिया है तो उनके दरमीयान इम्तेयाज़ बरतना ख़िलाफ़े इंसाफ़ है। लेकिन अगर उसी ने फ़ितरत के तक़ाज़ों के पेशे नज़र शादी के इब्तेदाई सात दिन नई ज़ौजा के लिये मुक़र्रर कर दियें है तो इस मसले में पुरानी ज़ौजा का मुदाख्लत करना नाइंसाफ़ी है। शौहर का इम्तेयाज़ी बर्ताव करना नाइंसाफ़ी नही है और हक़ीक़ते अम्र यह है कि समाज ने शौहर के सारे इख़्तेयारात सल्ब कर लिये हैं। लिहाज़ा उसका हर एक़दाम ज़ुल्म नज़र आता है वर्ना ऐसे ऐसे शौहर भी होते हैं जो क़ौमी या सियासी ज़रूरीयात की बेना पर मुद्दतों घर के अंदर दाख़िल नही होते हैं। और ज़ौजा इस बात पर ख़ुश रहती है कि मैं बहुत बड़े ओहदेदार या वज़ीर की ज़ौजा हूँ। और वक़्त उसे इस बात का ख़्याल भी नही आता है कि मेरा कोई हक़ पामाल हो रहा है। लेकिन उसी ज़ौजा को अगर यह इत्तेला हो जाये कि वह दूसरी ज़ौजा के घर रात गुज़ारता है तो एक लम्हे के लिये बर्दाश्त करने को तैयार न होगी जो सिर्फ़ एक जज़्बाती फैसला है और उसका इंसानी ज़िन्दगी के ज़रूरीयात से कोई तअल्लुक नही है। ज़रूरत का लिहाज़ रखा जाये तो अक्सर हालात में और अक्सर इंसानों के लिये मुताद्दिद शादीयाँ करना ज़रूरीयात में शामिल है जिससे कोई मर्द या औरत इंकार नही कर सकता है। यह और बात है कि समाज से दबाव से दोनों मजबूर हैं और कभी घुटन की ज़िन्दगी गुज़ार लेते हैं और कभी बेराह रवी के रास्ते पर चल पड़ते हैं जिसे हर समाज बर्दाश्त कर लेता है और उसे माज़ूर क़रार देता है जबकि क़ानून की पाबंदी और रिआयत में माज़ूर नही क़रार देता है।
इस सिलसिले में यह बात भी क़ाबिले तवज्जो है कि इस्लाम ने तअद्दुदे इज़देवाज को अदालत से मशरूत क़रार दिया है लेकिन अदालत को इख़्तेयारी नही रखा है बल्कि उसे ज़रूरी क़रार दिया है और हर मुसलमान से मुतालेबा किया है कि अपनी ज़िन्दगी में अदालत से काम ले और कोई काम ख़िलाफ़े अदालत न करे। अदालत के मायनी वाजिबात की पाबंदी और हराम से परहेज़ भी। लिहाज़ा अदालत कोई इज़ाफ़ी शर्त नही है। इस्लामी मिज़ाज का तक़ाज़ा है कि हर मुसलमान को आदिल होना चाहिये और किसी मुसलमान को दायरा ए अदालत से बाहर नही जाना चाहिये। जिसका लाज़मी असर यह होगा कि क़ानूने तअद्दुदे अज़वाज हर सच्चे मुसलमान के लिये क़ाबिले अमल बल्कि बड़ी हद तक वाजिबुल अमल है कि इस्लाम ने बुनियादी मुतालेबा दो या तीन या चार का किया है और एक औरत को इसतिस्नाई सूरत दे रखी है जो सिर्फ़ अदालत के न होने की सूरत में मुमकिन है। और अगर मुसलमान वाकयी मुसलमान है यानी आदिल है तो उसके लिये क़ानून दो या तीन या चार का ही है। उसका क़ानून एक का नही है जिसकी मिसालें बुज़ुर्गाने मज़हब की ज़िन्दगी में हज़ारों की तादाद में मिल जायेंगीं और आज भी रहबराने दीन की अकसरीयत इस क़ानून पर अमल पैरा है और उसे किसी तरफ़ से ख़िलाफ़े अख़लाक़ व तहज़ीब या ख़िलाफ़े क़ानून व शरीयत नही समझती है और न कोई उनके किरदार पर ऐतराज़ करने की हिम्मत करता है। ज़ेरे लब मुस्कुराते ज़रूर हैं कि यह अपने समाज के जाहिलाना निज़ाम की देन है और जिहालत का कम से कम मुज़ाहिरा इसी अंदाज़ से हो सकता है।
इस्लाम ने तअद्दुदे अज़वाज के नामुमकिन होने की सूरत में भी कनीज़ों की इजाज़त दी है कि उसे मालूम है कि फ़ितरी तक़ाज़े सही तौर पर एक औरत से पुरे होना मुश्किल हैं, लिहाज़ा अगर नाइंसाफ़ी का ख़तरा है और दामने अदालत हाथ से झूट जाने का अंदेशा है तो इंसान ज़ौजा के साथ कनीज़ों से राब्ता कर सकता है। अगर किसी समाज में कनीज़ों का वुजूद हो और उनसे राब्ता मुमकिन हो। इस मसले से एक सवाल ख़ुद ब ख़ुद पैदा होता है कि इस्लाम ने इस अहसास का सुबूत देते हुए कि एक औरत से पुरसुकून ज़िन्दगी गुज़ारना दुश्नार गुज़ार अमल है। पहले तअद्दुदे अज़वाज की इजाज़त दही और फिर उसके नामुमकिन होने की सूरत में दूसरी ज़ौजा की कमी कनीज़ से पुरी की तो अगर किसी समाज में कनीज़ों का वुजूज न हो या इस क़दर क़लील हो कि हर शख़्स की ज़रूरत का इन्तेज़ाम न हो सके तो उस कनीज़ को मुताबादिल क्या होगा और उस ज़रूरत का इलाज किस तरह होगा जिसकी तरफ़ क़ुरआने मजीद ने एक ज़ौजा के साथ कनीज़ के इज़ाफ़े से इशारा किया है।
यही वह जगह है जहाँ से मुतआ के मसले का आग़ाज़ होता है और इंसान यह सोचने पर मजबूर होता है कि अगर इस्लाम ने मुकम्मल जिन्सी हयात की तसकीन का सामान किया है और कनीज़ों का सिलसिला मौक़ूफ़ कर दिया है और तअद्दुदे अज़वाज में अदालत व इंसाफ़ की शर्त लगा दी है तो उसे दूसरा रास्ता तो बहरहाल खोलना पड़ेगा ताकि इंसान अय्याशी और बदकारी से महफ़ूज़ रह सके, यह और बात है कि ज़हनी तौर पर अय्याशी और बदकारी के दिलदादा अफ़राद मुतआ को भी अय्याशी का नाम दे देते हैं और यह मुतआ की मुख़ालेफ़त की बेना पर नही है बल्कि अय्याशी के जवाज़ की बेना पर है कि जब इस्लाम में मुतआ जाएज़ है और वह भी एक तरह की अय्याशी है तो मुतआ की क्या ज़रूरत है सीधे सीधे अय्याशी ही क्यों न की जाये और यह दर हक़ीक़त मुतआ की दुश्वारीयों का ऐतराफ़ है और इस अम्र का इक़रार है कि मुतआ अय्याशी नही है। इसमें क़ानून, क़ायदे की रिआयत ज़रूरी है और अय्याशी उन तमाम क़वानीन से आज़ाद और बेपरवाह होती है।
सरकारे दो आलम(स) के अपने दौरे हुकुमत में और ख़िलाफ़तों के इब्तेदाई दौर में मुतआ का रिवाज क़ुरआने मजीद इसी क़ानून की अमली तशरीह था जबकि उस दौर में कनीज़ों का वुजूद था और उनसे इस्तेफ़ादा मुमकिन था तो यह फ़ौक़ाहा ए इस्लाम को सोचना चाहिये कि जब उस दौर में सरकारे दो आलम(स) ने हुक्मे ख़ुदा के इत्तेबा में मुतआ को हलाल और राएज कर दिया था तो कनीज़ों के ख़ात्मे के बाद उस क़ानून को किस तरह हराम किया जा सकता है। यह तो अय्याशी का ख़ुला हुआ रास्ता होगा कि मुसलमान उसके उसके अलावा किसी रास्ते पर न जायेगा और मुसलसल हरामकारी करता रहेगा जैसा कि अमीरूल मोमीनीन हज़रत अली(अ) ने फ़रमाया था कि अगर मुतआ हराम न कर दिया गया होता तो बदनसीब और शक़ी इंसान के अलावा कोई ज़ेना न करता। गौया आप इस अम्र की तरफ़ इशारा कर रहे थे कि मुतआ पर पाबंदी आएद करने वाले ने मुतआ का रास्ता नही बंद किया है बल्कि अय्याशी और बदकारी का रास्ता खोल दिया है और उसका रोज़े क़यामत जवाबदेह होना पड़ेगा।
इस्लाम अपने क़वानीन में इन्तेहाई हकीमाना रविश इख़्तियार करता है और उससे इन्हेराफ़ करने वालों को शक़ी और बदबख़्त से ताबीर करता है।