सूराऐ इब्राहीम की तफसीर
  • शीर्षक: सूराऐ इब्राहीम की तफसीर
  • लेखक:
  • स्रोत:
  • रिलीज की तारीख: 2:40:4 4-9-1403

पवित्र क़ुरआन के चौदहवें सूरे का नाम इब्राहीम है जिसमें 52 आयतें हैं। इस सूरे की 28वीं और 29वीं आयतें को छोड़कर इसकी सभी आयतें मक्के में उतरी हैं। इसका कारण यह है कि इस सूरे में हज़रत इब्राहीम और उनकी दुआओं और लोगों के मार्गदर्शन की दिशा में इस महान ईश्वरीय दूत के प्रयासों का वर्णन किया गया है। इसीलिए इसका नाम इब्राहीम रखा गया है। इस सूरे की अन्य आयतों में उनसे पहले के ईश्वरीय दूतों और हज़रत नूह, मूसा, ईसा, आद और समूद की जाति की ओर संकेत किया गया है।


इब्राहीम नामक सूरा भी पवित्र क़ुरआन के अन्य सूरों की भांति हूरूफ़े मुक़त्तेआत अर्थात विच्छेदित अक्षरों से आरंभ होता है। इससे पूर्व हमने आपको बताया था कि इन अक्षरों के रहस्यों में से एक बात यह है कि ईश्वर इसके माध्यम से यह स्पष्ट करना चाहता है कि पवित्र क़ुरआन अपनी अद्वितीय आयतों के माध्यम से लोगों के मार्गदर्शन और नेतृत्व की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लिए हुए है और इसीलिए साधरण वाक्यों से बना है और यह इस पुस्तक के चमत्कार का चिन्ह है।


अलिफ़ लाम रा। (हे पैग़म्बर!) यह वह किताब है जिसे हमने आपके पास भेजा है ताकि आप लोगों के पालनहार की अनुमति से उन्हें अंधकारों से निकाल कर प्रकाश और सराहनीय व प्रतिष्ठित ईश्वर के मार्ग की ओर ले जाएं।


सूरए इब्राहीम अपनी बातें लोगों को अनेकेश्वरवाद और अज्ञानता के अंधकार से निकालकर एकेश्वरवाद और ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने में पवित्र क़ुरआन की भूमिका से आरंभ करता है  और कहता है कि यह वह पुस्तक है जिसे मैंने आप पर ऊतारा है ताकि लोगों को पथभ्रष्टता के अंधकार से प्रकाश की ओर लाएं। वास्तव में पवित्र क़ुरआन के मानवीय व प्रशिक्षण संबंधी समस्त लक्ष्य इसी बिन्दु अर्थात लोगों को अंधकार से प्रकाश की ओर निकालने में निहित है। ईश्वरीय दूतों के भेजे जाने की नीति और पवित्र क़ुरआन का मुख्य लक्ष्य, लोगों को अज्ञानता, अनेकेश्वरवाद और अत्याचार के अंधकार से निकालना और उसको न्याय, ईमान और ज्ञान के प्रकाश की ओर उसे लाना है।


यह आयत, इस बात की सूचक है कि मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए जो भी वस्तु आवश्यक है वह क़ुरआन में वर्णित है। पवित्र क़ुरआन इस बात को भी याद दिलाता है कि यह किताब, केवल पढ़ने वाली आयतें नहीं है बल्कि जीवन के उच्चतम कार्यक्रम इसमें वर्णित हैं। इसीलिए लोगों के जीवन में इसका स्थान होना चाहिए। रोचक बिन्दु यह है कि पवित्र क़ुरआन में अंधकार शब्द बहुवचन प्रयोग हुआ है जबकि प्रकाश शब्द एकवचन प्रयोग हुआ है। यह सूक्ष्मता यह अर्थ देती है कि प्रकाश का एक ही स्रोत है और समस्त भलाइयां और पवित्रताएं एकेश्वरवाद के प्रकाश की छत्रछाया में एक और समान हैं। यही कारण है कि सत्य का मार्ग एक है और पूरे इतिहास में समस्त ईश्वरीय दूत एक ही लक्ष्य और मार्ग पर चले हैं। उनकी शिक्षा के सिद्धांत भी एक ही रहे हैं किन्तु अंधकार जो असत्य का प्रतीक है, बहुत अधिक है। असत्य पर चलने वालों के सिद्धांत बिखरे हुए होते हैं और यहां तक कि वे अपनी पथभ्रष्टता के मार्ग में भी बंटे हुए हैं और उनमें एकता नहीं पायी जाती।


यह आयत यह भी संदेश देती है कि यद्यपि पवित्र क़ुरआन लोगों का मार्गदर्शन करने वाली पुस्तक है किन्तु ईश्वरीय दूत जैसे नेतृत्व की भी बहुत आवश्यकता है जो उसकी शिक्षाओं का क्रियान्वयन करे और इसके माध्यम से पथभ्रष्ट लोगों को अंधकार से प्रकाश की ओर लाए। अलबत्ता अंधकार से प्रकाश की ओर लोगों को निकालना, इस बात को दर्शाता है कि मानो ईमान न रखने वाला व्यक्ति बंद और अंधकारमयी वातावरण में जीवन व्यतीत कर रहा है और ईश्वरीय दूत खुले वातावरण की ओर उसका मार्गदर्शन करते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि पवित्र क़ुरआन लोगों को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है, यह मार्गदर्शन किस ओर है? आयत उत्तर देती है कि सराहनीय व प्रतिष्ठित ईश्वर के मार्ग की ओर।


सूरए इब्राहीम की सातवीं आयत में मानव जीवन में आभार के प्रभाव और उसकी भूमिका की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि और (हे पैग़म्बर!) याद कीजिए उस समय को जब आपके पालनहार ने घोषणा कर दी कि यदि तुम कृतज्ञ रहे तो मैं तुम्हें और अधिक अनुकंपाएं प्रदान करूंगा और यदि तुम अकृतज्ञ रहे तो मेरा दण्ड अत्यंत कड़ा है।


यह आयत अनुकंपाओं पर कृतज्ञ रहने और अकृतज्ञ रहने के संबंध में पवित्र क़ुरआन की सबसे स्पष्ट आयत है और मानवता के लिए बहुत अच्छा व सार्थक संदेश लिए हुए है। निसंदेह ईश्वर ने जो हमें बे पनाह अनुकंपाएं दी हैं उसके मुक़ाबले में उसे हमारे कृतज्ञ रहने की कोई आवश्यकता नही है और यदि वह कृतज्ञ रहा तो उसे अधिक अनुकंपाएं दी जाएंगी। आभार, स्वयं में एक अच्छी चीज़ है। आइये आभार के बारे में आपको कुछ बिन्दु बताते हैं ताकि अनुकंपाओं की वृद्धि और इसके मध्य संबंध स्पष्ट हो सके। आभार केवल ज़बान से आभार व्यक्त करना नहीं है बल्कि इसके लिए तीन चरण होते हैं। पहला यह है कि हमें यह देखना होगा कि यह अनुकंपा हमें किसने प्रदान की है। इस प्रकार ध्यान दिया जाना और चेतना आभार का पहला चरण है। उसके बाद ज़बान का चरण आता है जो उसके ऊपर का चरण है। व्यवहारिक आभार उसे कहते हैं कि हम देखें कि कोई भी अनुकंपा हमें क्यों दी गयी है? हमें उसी स्थान पर उसका प्रयोग करना चाहिए। यदि हमने ऐसा नहीं किया तो मानो हमने अनुकंपा को बर्बाद कर दिया।


वास्तव में हमें यह सोचना चाहिए कि ईश्वर ने हमें आंख, कान, मुंह, नाक, इंद्रियां क्यों प्रदान की है? यह इसलिए है ताकि हम विश्व में उसके वैभव को समझें, जीवन के मार्ग को पहचाने और इन साधनों से परिपूर्णता के मार्ग पर क़दम बढ़ाएं। यदि हमें प्रदान की गयी बड़ी अनुकंपाओं का प्रयोग हमने सही मार्ग पर किया तो हमने व्यवहारिक आभार व्यक्त किया किन्तु यदि यह अनुकंपाएं, आत्ममुग्धता, निश्चेतना और ईश्वर से दूरी के लिए हो तो यह अकृतज्ञता है। हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि सबसे कम कृतज्ञता यह है कि हम अनुकंपा को ईश्वर की ओर से जानें न कि अपनी चतुराई, बुद्धि और प्रयास का परिणाम समझें, इसी प्रकार उसकी अनुकंपाओं से राज़ी होना और यह कि ईश्वरीय अनुकंपा को उसकी अकृतज्ञता का माध्यम क़रार न दें।


शक्ति, ज्ञान, विचार शक्ति, सामाजिक प्रभाव, धन संपत्ति और स्वास्थ्य जैसी हर प्रकार की अनुकंपाओं के लिए आभार का मार्ग मौजूद है। जब भी मनुष्य ईश्वर की ओर से प्रदान की गयीं अनुकंपाओं को उसके सही मार्ग पर ख़र्च करता है तो उसने व्यवहारिक रूप से अपनी योग्यता को सिद्ध किया है। यह क्षमता और योग्यता, अनुकंपाओं की वृद्धि का कारण बनती हैं।


एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार, आभार व्यक्त करना उसे कहा है कि एक प्राणी अपने पास मौजूद अनुकंपाओं से विकास और प्रगति के लिए लाभ उठाए। उदाहरण स्वरूप बाग़बान अपने बाग़ के उस भाग को देखकर खिल उठता है जहां पर अच्छे और फलदार वृक्ष उगते हैं। इसीलिए वह बाग़ के उस भाग पर विशेष रूप से ध्यान देता है किन्तु बाग़ के अन्य भाग जिसमें फलदार वृक्ष कम होते हैं उसे देखकर उसका हौसला पस्त हो जाता है, इसीलिए वह उस भाग पर ध्यान कम देता है और यदि यह ऐसी जारी रहती है तो उनका काम तमाम करने की सोचने लगता है क्योंकि इसमें श्रम लगाने का कोई लाभ ही नहीं होता। ठीक यही स्थिति हमारे ऊपर भी लागू होती है, केवल इस बात में अंतर है कि वृक्ष को कोई अधिकार नहीं है और वे प्रकृति के क़ानून के समक्ष नतमस्तक होते हैं किन्तु मनुष्य अपने शक्ति, इरादे, अधिकार, शिक्षा और प्रशिक्षण से लाभ उठाकर अनुकंपाओं को सही मार्ग पर ख़र्च करके सही मार्ग पर क़दम बढ़ा सकता है।


यदि किसी ने अनुकंपाओं का दुरुपयोग किया, उदाहरण स्वरूप शक्ति को दूसरों पर अत्याचार और दूसरों के अधिकारों पर अतिक्रमण के लिए प्रयोग किया तो वास्तव में वह इस अनुकंपा के योग्य ही नहीं है किन्तु वह लोग जो इस शक्ति को सत्य और न्याय के क्रियान्वयन के मार्ग में प्रयोग करते हैं तो वह अनुकंपाओं के सही प्रयोग के बारे में अपनी क्षमता को सिद्ध करते हैं और वह अपने दिल की ज़बान से कहते हैं कि ईश्वर मैं इस योग्य हूं, अपनी अनुकंपाओं की मुझ पर वृद्धि कर।


हज़रत अली अलैहिस्सलाम आभार व्यक्त करने के महत्त्व के बारे में कहते हैं कि जब ईश्वरीय अनुकंपाओं की भूमिका तुम तक पहुंचे तो आप प्रयास करें कि उसका आभार व्यक्त करके अन्य अनुकंपाओं को अपनी ओर आकर्षित करें न कि कम आभार करके उसे स्वयं से दूर कर दें।


निसंदेह हमें हर समय ईश्वर की अनुकंपाओं का आभार व्यक्त करना चाहिए, आभार व्यक्त करने की यह क्षमता, स्वयं ईश्वर की देन है और इस प्रकार से हर आभार व्यक्त करने से हम ईश्वर की नई अनुकंपाओं के ऋणि हो जाते हैं। इसीलिए हम इस बात पर तनिक भी सक्षम नहीं हैं कि ईश्वर की अनुकंपाओं का जितना उसका अधिकार है, अदा करें।


यहां पर यह बात पर उल्लेख करना आवश्यक है कि अनुकंपाओं के मुक़ाबले में केवल आभार व्यक्त करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसका भी आभार व्यक्त करना चाहिए जिसके माध्यम से हमें यह अनुकंपाएं प्राप्त हुईं, हमें उसके कष्टों का आभार व्यक्त करना चाहिए। यह चीज़ इस बात का कारण बनती है कि वे अधिक से अधिक सेवा के लिए प्रेरित हों। समाज में आभार व्यक्त करने की भावना को उत्पन्न करना और उन लोगों की प्रशंसा करना जिन्होंने अपने ज्ञान व बलिदान के माध्यम से सामाजिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाने का काम किया, समाज की सुदृढ़ता और निखार का मुख्य कारण है। ऐसे समाज में जिसमें प्रशंसा और आभार व्यक्त करने की भावना फीकी पड़ गयी है, लोगों में सेवा के लिए कम रुचि पैदा होती है। इसके विपरीत ऐसे समाज में जिसमें लोग अपने बलिदानों और कष्टों से प्रशंसा के पात्र बनते हैं, प्रयास की भावना, अधिक क्षमा करने की भावना और विकास की भूमिका प्रशस्त होती है।


सूरए इब्राहीम की आयत संख्या 18 में आया है कि काफ़िरों के कर्मों की उपमा, उस राख से दी जा सकती है जिस पर एक तूफ़ानी दिन में तेज़ हवा चले। जो कुछ उन्होंने प्राप्त किया है उसमें से एक कण को भी सुरक्षित रखने में वे सक्षम नहीं हैं और यही खुली हुई पथभ्रष्ठता है।


राख तेज़ हवा में उड़ जाती है जिसको एकत्रित करने की क्षमता किसी में भी नहीं है, इसी प्रकार सत्य का इन्कार करने वाले अपने कर्मों से कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाते। उनके सारे कर्म हवा में उड़ जाते हैं और उनका हाथ ख़ाली हो जाता है। संभव है कि उनके कर्म विदित रूप से अधिक हों किन्तु यह केवल एक दिखावा है और इसका कोई लाभ नहीं है और लाभहीन है। एक मिट्टी के छोटे से बर्तन में संभव है कि सुन्दर फूल खिले किन्तु राख के ढेर में एक पत्ती भी न उगे। इस प्रकार से अनेकेश्वरवादियों के कर्म ख़ाली, परिणामहीन और केवल ढकोसला हैं


सूरेए इब्राहीम की २१वीं आयत में महान ईश्वर कहता है प्रलय में सभी ईश्वर के समक्ष लाए जाएंगे तो कमज़ोर लोग बलवानों से कहेंगे, हम संसार में तुम्हारे अधीन थे, तो क्या आज तुम ईश्वरीय दण्ड के कुछ भाग को हमसे रोक सकते हो? वे कहेंगे, यदि ईश्वर हमारा मार्गदर्शन करता तो हम भी तुम्हारा मार्गदर्शन कर देते। आज चाहे हम उतावलेपन से काम लें या धैर्य से, कोई अंतर नहीं है और हमारी मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है।


यह आयत कहती है कि वे लोग जो संसार में दूसरों का अंधा अनुसरण करते हैं तथा शासकों की अवैध इच्छाओं का पालन करते हैं, प्रलय में वे उन्हीं लोगों के साथ रहेंगे तथा उन्हीं की भांति उनके पास भी मुक्ति का कोई मार्ग नहीं रहेगा। अत्याचारी संसार में पैग़म्बरों व धर्म के प्रचारकों से कहते थे कि तुम चाहे हमें नसीहत करो या न करो हमें कोई अंतर नहीं पड़ता। प्रलय में भी वे अपने ऊपर आपत्ति करने वालों के उत्तर में कहेंगे कि चाहे हम रोएं-चिल्लाएं या धैर्य से काम लें, हमारी मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है।


प्रलय के दिन अत्याचारी, काफिर और नास्तिक सबके सब महान ईश्वर के न्यायालय में पेश होंगे। उस समय उनके जो अज्ञानी व अबोध अनुयाई होंगे वे उन अहंकारियों से कहेंगे कि हम तुम्हारा अनुसरण करने के कारण इस विपत्ति में फंस गये हैं तुम भी हमारे प्रकोप के एक भाग को ले लो ताकि हमारी पीड़ा कुछ कम हो जाये। उस वक्त वे कहेंगे  कि अगर ईश्वर ने दंड से मुक्ति की ओर हमारा मार्ग दर्शन किया होती तो हम भी तुम्हारा मार्गदर्शन करते। इसी तरह वे अहंकारी अपने अज्ञानी अनुसरण कर्ताओं से कहेंगे कि बेकार में चीखे चिल्लाओ नहीं अब मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है।


इस बात को ध्यान में रखना चाहिये कि पवित्र कुरआन की आयतों के अनुसार काफिरों और अत्याचारियों को अपने अनुसरणकर्ताओं के पापों का भी मज़ा चखना होगा क्योंकि उन्होंने ही अपने अनुसरणकर्ताओं की गुमराही की बुनियाद रखी थी। इसके अतिरिक्त उन्हें अपने पापों की भी सज़ा मिलेगी और उसमें किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होगी।


पवित्र कुरआन की इस आयत से भलिभांति समझा जा सकता है कि जो लोग आंख बंद करके इनके- उनके पीछे भागते हैं और अपनी लगाम दूसरों के हाथ में दे देते हैं और पथभ्रष्ट हो जाते हैं उन्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि वे जिन लोगों का अनुसरण करते हैं उनका भी वही परिणाम होने वाला है जो उनका होगा।


पवित्र कुरआन के सूरेए इब्राहीम की २२वीं आयत के बाद की आयत में इंसानों को चेतावनी दी गयी है कि वे शैतान की चालों और उसके बहकावे से होशियार रहें। जब अच्छे और बुरे बंदों का हिसाब किताब समाप्त हो जायेगा और उनमें से हर एक का अंत ज्ञात हो जायेगा तो शैतान अपने अनुयाइयों से कहेगा ईश्वर ने तुम्हें सत्य का वचन दिया था और मैंने तुम्हें झूठा वचन दिया था उसके बाद मैं अपने वादे से मुकर गया। इस प्रकार शैतान अपनी आपत्ति का वाण अपने अनुयाइयों की ही ओर छोड़ेगा और कहेगा कि तूम्हारा नियंत्रण तो मेरे हाथ में था ही नहीं मैंने तो तुम्हें केवल पापों की ओर बुलाया व उकसाया था और तुमने मेरे निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। इस आधार पर तुम मेरी भर्त्सना करने के बजाये स्वयं अपनी भर्त्सना करो। सूरेए इब्राहीम की इस आयत में इंसानों को बहकाने हेतु शैतान की चालों और उसके प्रयासों की ओर संकेत किया गया है। शैतान, इंसानों को गुमराह करने और अपने जाल में फंसाने के लिए दिल में जो उकसावा करता है उससे इंसान की स्वाधीनता एवं आज़ादी समाप्त नहीं होती है। दूसरे शब्दों में शैतान अपनी चालों से इंसान को मजबूर नहीं करता बल्कि वह मात्र उकसाता है। ये इंसान है जो अपनी इच्छा से उसके निमंत्रण को स्वीकार करता है। अलबत्ता यह संभव है कि इंसानों में गलत कार्य करने की आदत उन्हें इस चरण पर पहुंचा दे कि वे बड़े आराम से शैतान की जाल में फंस जायें। इसके बाद पवित्र कुरआन के सूरे इब्राहीम की २३वीं आयत में उन लोगों की ओर संकेत किया गया है जिन्होंने महान ईश्वर पर ईमान की छत्रछाया में भले कार्य अंजाम दिये और उन्हें मुक्ति व कल्याण प्राप्त हो गया। वे एसे बाग़ में प्रविष्ट हो गये हैं जिनके नीचे दूध और शहद की नदियां बह रही हैं और अपने पालनहार की असीम कृपा से सदा वे सदा के लिए वे उसमें रहेंगे। उसमें उन्हें कभी भी मौत नहीं आयेगी। उसके बाद सूरेए इब्राहीम की २४वीं व व २५वीं आयत में पवित्र कुरआन ने सत्य, असत्य, ईमान, पवित्र और अपवित्र का बहुत ही अच्छा व आकर्षण चित्रण किया है। इस सूरे की २४वीं-२५वीं आयत में पवित्र शब्द की उपमा वृक्ष से दी गयी है। महान ईश्वर कहता है” क्या तुमने नहीं देखा कि ईश्वर ने किस प्रकार उदाहरण दिया? पवित्र शब्द एक पावन वृक्ष की भांति है जिसकी जड़ जमीन में स्थिर और उसकी शाखायें आसमान में हैं। वह अपने फल हर समय अपने पालनहार की अनुमति से देते हैं और ईश्वर लोगों के लिए उदाहरण बयान करता है कि शायद वे याद करें और सीख लें।


महान ईश्वर ने पवित्र शब्द की उपमा पवित्र वृक्ष से दी है क्योंकि वह बढ़ता है। यह वृक्ष हर पहलु से पवित्र है। फल,फूल यहां तक कि जो हवायें भी उससे होकर गुजरती हैं वे भी पवित्र हैं। इस वृक्ष की जड़ और शाखाए हैं। उसकी जड़ स्थिर है इस प्रकार से कि तूफान और तेज़ हवायें भी उसे नहीं उखाड़ सकतीं। इस वृक्ष की शाखायें आसमान में हैं। अगर हम सही तरह से सोचें तो इन विशेषताओं एवं उनकी विभूतियों को एकेश्वरवाद और ईश्वर को एक मानने वाले व्यक्ति में पाया जा सकता है। इन सबकी जड़ें बहुत मज़बूत और उनकी शाखाएं आसमान में होती हैं। जो भी व्यक्ति स्वयं को ईश्वरीय शिक्षाओं व सदगुणों से सुसज्जित कर ले उसके जीवन में ईश्वरीय विभूतियां प्रकट होंगी। क्योंकि एकेश्वरवाद के वृक्ष में नाना प्रकार के फल होते हैं। इस प्रकार के व्यक्तियों के मुकाबले में अपवित्र व्यक्ति होते हैं। सूरेए इब्राहीम की २६वीं आयत में महान ईश्वर कहता है कि अपवित्र शब्द की उपमा अपवित्र वृक्ष की भांति है जिसे ज़मीन से उखाड़ दिया गया गया है और उसकी कोई जड़ नहीं है।


अपवित्र शब्द में ग़लत आस्था, अपवित्र व्यक्ति, गुमराह करने वाले कार्यक्रम और हर अपवित्र चीज़ शामिल है। स्पष्ट है कि जिस वृक्ष को जड़ से उखाड़ दिया गया हो उसकी न तो जड़ है और न फल है , न फूल न छाया है न सुन्दरता और स्थिरता। वह मात्र लकड़ी का एक टुकड़ा है जो सूखा व लाभहीन है और मात्र दूसरों के मार्ग की रुकावट है।


महान ईश्वर सूरे इब्राहीम की ३५वीं आयत में कहता है” हे पैग़म्बर उस समय को याद कीजिए  जब इब्राहीम ने कहा कि हे पालनहार इस नगर को सुरक्षित शहर करार दे और मुझे तथा मेरे बेटे को मूर्तिपूजा से दूर रख”


हज़रत इब्राहीम महान ईश्वरीय पैग़म्बर थे। उन्होंने जीवन भर मूर्तिपूजा से संघर्ष किया। उन्होंने अज्ञानता के घनघोर अंधेरे में डूबे दिलों को एकेश्वरवाद के प्रकाश से प्रकाशित कर दिया और लोगों के एक गुट को पथभ्रष्टता से मुक्ति प्रदान कर दी।


अलबत्ता हज़रत इब्राहीम ने सत्य को स्पष्ट करने के लिए बहुत सारी कठिनाइयां सहन कीं। उनमें से एक उनकी पहली पत्नी की उनकी दूसरी पत्नी हज़रत हाजेरा के संबंध में ईर्ष्या थी। हज़रत इब्राहीम की एक दासी हज़रत हाजेरा थीं और उनसे एक बच्चा पैदा हुआ जिसका नाम हज़रत इब्राहीम ने इस्माईल रखा। यह समस्या इस बात का कारण बनी कि महान ईश्वर का आदेश हुआ कि हज़रत इब्राहीम फिलिस्तीन से अपनी पत्नी और बच्चे को मक्के के निर्जल मरूस्थल में छोड़ कर लौट आयें। हज़रत इब्राहीम ने महान ईश्वर के आदेश के अनुसार अमल किया और उन्हें मक्के के पहाड़ों के मध्य छोड़ दिया। कुछ ही देर गुजरी थी कि मक्के की कड़ी धूप और गर्मी के कारण माता एवं नवजात शिशु दोनों प्यासे हो गये। हज़रत हाजर ने अपने बच्चे की प्यास बुझाने के लिए बहुत प्रयास किया परंतु उनके प्रयासों का कोई परिणाम नहीं निकला किन्तु कुछ ही समय बाद बच्चे के पैर के नीचे से पानी का सोता जारी हो गया। वे क़बीले और लोग, जो उनके निकट से गुज़र रहे थे फिर इस प्रकरण से अवगत हो गये और उन्होंने वहां पर अपना डेरा डाल दिया। धीरे धीरे और कबीलों के लोग वहां आ गये जो उस स्थान के आबाद होने का कारण बना। उसके कुछ समय बाद हज़रत इब्राहीम को महान ईश्वर ने आदेश दिया कि वह काबे की दीवारों को ऊंचा करें और लोगों को वहां पर उपासना के लिए आमंत्रित करें। हज़रत इब्राहीम ने अपने बेटे हज़रत इस्माईल की सहायता से काबे की दीवारें ऊंची की। जब दीवार को ऊंचा उठाने का काम पूरा हो गया तो हज़रत इब्राहीम ने महान ईश्वर से जो प्रार्थना की है पवित्र कुरआन उसे बयान करता है ताकि वह दूसरों के लिए सीख रहे। पवित्र कुरआन की इस आयत में हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम दुआ मांगने का तरीक़ा सिखाते हैं। सबसे पहले वे महान ईश्वर से मक्का नगर की सुरक्षा की दुआ करते हैं क्योंकि हर स्थान पर जीवन व्यतीत करने की पहली शर्त सुरक्षा है।


हर आबादी और विकास के लिए सुरक्षा आवश्यक है। हज़रत इब्राहीम की महान ईश्वर से दूसरी दुआ यह है कि वह उन्हें और उनकी संतान को मूर्तिपूजा से दूर रखे। यह वह दुआ है जो दूसरे धार्मिक कार्यक्रमों का आधार है। हज़रत इब्राहीम की ईश्वर से तीसरी दुआ यह है कि ईश्वर की उपासना करने वालों का ध्यान उनकी संतान और धर्म के उनके दूसरे अनुयाइयों पर रहे जबकि उनकी चौथी दुआ यह है कि उन्हें विभिन्न प्रकार के फल प्राप्त हों। महान ईश्वरीय पैग़म्बर हज़रत इब्राहीम की पांचवी दुआ यह है कि महान ईश्वर उन्हें नमाज़ पढ़ने और उसे कायेम रखने का सामर्थ्य प्रदान करे क्योंकि नमाज़ ईश्वर और इंसान के मध्य संपर्क का सबसे बड़ा व मज़बूत साधन है। यह वह दुआ है जिसे वे न केवल अपने लिए बल्कि अपनी संतान के लिए भी मांगते हैं। हज़रत इब्राहीम की छठी दुआ यह है कि ईश्वर उनकी दुआ को स्वीकार कर ले। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि महान उस दुआ को स्वीकार करता है जो पवित्र हृदय व आत्मा से निकली हो। महान व सर्वसमर्थ ईश्वर से हज़रत इब्राहिम की सातवीं दुआ यह है कि अगर उनसे कोई ग़लती हो जाये तो ईश्वर अपनी महाकृपा से उसे क्षमा कर दे और इसी प्रकार प्रलय के दिन उनके माता पिता और समस्त मोमिनों पर कृपा करे। पवित्र कुरआन में जब हज़रत इब्राहीम के दुआ के शब्दों का बयान समाप्त हो जाता है तो पवित्र कुरआन की आयतें पैगम्बरे इस्लाम और मोमिनों को संबोधित करके कहती हैं कि अगर तुम यह देखते हो कि अत्याचारी बड़े आराम से हैं और उन पर कोई मुसीबत नहीं पड़ रही है तो इसका यह मतलब नहीं है कि ईश्वर को उनके कार्यों की खबर नहीं है। ईश्वर अपनी तत्वदर्शी दृष्टि से समस्त इंसानों को मोहलत व अवसर देता है ताकि अगर उनके अंदर योग्यता हो तो वे अपने बुरे कर्मों से प्रायश्चित कर लें अन्यथा वे अपने कर्मों का परिणाम स्वयं प्रलय के दिन देखेंगे।


महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे इब्राहीम की ४२वीं आयत में कहता है”। ये अत्याचारी जो कुछ कर रहे हैं उससे ईश्वर को बेखबर मत समझो वह उनके दंड को उस दिन के लिए टाल रहा है जिस दिन आंखें की फटी रह जायेंगी”


अलबत्ता उस समय कोई बहाना स्वीकार नहीं किया जायेगा। उस दिन अत्याचारी कहेंगे कि पालनहार हमें थोड़ा सा समय दे दे ताकि हम तेरे निमंत्रण को स्वीकार करें और तेरे पैग़म्बर का अनुपालन करें। उस समय ईश्वर उनसे कहेगा क्या तुम नहीं थे जो इससे पूर्व कसम खाया करते थे कि हमारा तो पतन ही नहीं होगा”