किसी भी मुसलमान की क़ब्र को खोलना हराम है, चाहे वह बच्चे या पागल इंसान की ही क्यों न हो। लेकिन अगर उसका बदन मिट्टी में मिलकर मिट्टी बन चुका हो तो कोई हरज नही है।
इमाम ज़ादों, शहीदों, आलिमों और नेक लोगों की क़ब्रो को उजाड़ना, अगर उनकी बेहुरमती का सबब हो तो हराम है, चाहे उन्हे मरे हुए बरसों गुज़र चुके हों और उनके बदन ख़ाक हो गये हों।
कुछ सूरतें ऐसी हैं जिनमें क़ब्र को खोलना हराम नही है।
1) अगर मैयित को ग़स्बी ज़मीन में दफ़्न कर दिया हो और उसका मालिक उसके वहाँ दफ़्न रहने पर राज़ी न हो।
2) अगर मैयित का कफ़न ग़स्बी हो या उसके साथ कोई ग़स्बी चीज़ दफ़्न कर दी गई हो और उसका मालिक इस बात पर रज़ामंद न हो कि वह चीज़ उसके साथ क़ब्र में रहे। या मैयित के माल में से कोई ऐसी चीज़ उसके साथ दफ़्न हो गई हो जो उसके वारिसों को मिलने वाली हो और उसके वारिस इस बात पर राज़ी न हों कि वह चीज़ क़ब्र में रहे। लेकिन अगर मरने वाले ने वसीयत की हो कि दुआ या अंगूठी या क़ुराने करीम उसके साथ दफ़्न किया जाये और उसकी वसीयत पर अमल करते हुए उन चीज़ों को उसके साथ दफ़ना दिया गया हो तो उन चीज़ों को निकालने के लिए क़ब्र को नही खोला जा सकता। इसी तरह कुछ ऐसे मौक़े भी हैं जिनमें अगर ज़मीन या कफ़न ग़स्बी हो या कोई ग़स्बी चीज़ मैयित के साथ दफ़्न हो गई हो तो भी क़ब्र को नही खोला जा सकता मगर यहाँ न अहकाम के ब्यान की गुंजाइश नही है।
3) अगर मैयित को बग़ैर ग़ुस्ल दिये या बग़ैर कफ़न पहनाये दफ़ना दिया गया हो या पता चले कि मैयित का ग़ुस्ल बातिल था, या उसे शरई अहकाम के मुताबिक़ कफ़न नही दिया गया था, या क़ब्र में क़िबला रुख नही लिटाया गया था तो अगर क़ब्र का खोलना मैयित की बेहुरमती का सबब न हो तो उसे खोला जा सकता है।
4) अगर किसी ऐसे हक़ को साबित करने के लिए मैयित के ज़िस्म को देखना ज़रूरी हो, जो क़ब्र खोलने से मुहिम हो।
5) अगर मैयित को किसी ऐसी जगह पर दफ़्न कर दिया गया हो जहाँ उसकी बेहुरमती होती हो, मसलन उसे काफ़िरों के क़ब्रिस्तान में या उस जगह दफ़्न कर दिया गया हो जहाँ कूड़ा करकट डाला जाता हो।
6) अगर किसी ऐसे शरई मक़सद के लिए क़ब्र खोली जाये जिसकी अहमियत क़ब्र खोलने से ज़्यादा हो। मसलन किसी ज़िन्दा बच्चे को ऐसी हामला औरत के पेट से निकालना मक़सद हो जिसे दफ़्न कर दिया गया हो।
7) अगर यह ख़तरा हो कि मैयित को दरिन्दें चीर फाड़ डालेंगे या सैलाब बहा ले जायेगा या दुश्मन निकाल लेगा।
8) अगर मैयित ने वसीयत की हो कि उसे मुक़द्दस मुक़ामात पर दफ़्न किया जाये और वहाँ ले जाने में उसकी बेहुरमती भी न होती हो, मगर जान बूझ कर या भूले से उसे किसी दूसरी जगह दफ़्ना दिया गया हो तो बेहुरमती न होने की सूरत में क़ब्र खोल कर उसे मुक़द्दस मक़ामात पर ले जा सकते हैं।