25 ज़ीक़ाद ईदे दहवुल अर्ज़
  • शीर्षक: 25 ज़ीक़ाद ईदे दहवुल अर्ज़
  • लेखक: शेख अब्बास क़ुम्मी
  • स्रोत:
  • रिलीज की तारीख: 17:58:33 1-9-1403

माहे ज़ीकाद की 25वी तारीख को ईदे दहवुल अर्ज़ के नाम से याद किया जाता है और इस की रात को फज़ीलत वाली रातो मे शुमार किया जाता है इस दिन खानाऐ काबा के नीचे पानी पर ज़मीन बिछाई गई थी और इस दिन रहमते खुदा नाज़िल होती है और इस रात मे इबादत करना वहुत ज़्यादा सवाब रखता है।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम फरमाते है कि आज की रात हज़रत इब्राहीम और हज़रत ईसा पैदा हुऐ थे और आज ही की रात मे खानाऐ काबा के नीचे पानी पर ज़मीन बिछाई गई और जो शख्स इस दिन रोज़ा रखे तो वो ऐसा है जैसे उसने 60 महीने तक रोज़ा रखा।

एक और रिवायत मे बयान हुआ है कि ये दिन हज़रत इमाम ज़माना (अ.स) के ज़ुहुर और क़याम का दिन भी है।

 

ये दिन इन चार दिनो मे से एक दिन है जो रोज़े की फज़ीलत के लिहाज़ से बहुत अहमियत रखते है और रिवायत मे है कि इस दिन का रोज़ा 70 साल के रोज़े के बराबर है और 70 साल के गुनाहो का कफ्फारा है और जो शख्स इस दिन रोज़ा रखे और इस की रात मे इबादत करे उसके लिऐ 100 साल की इबादत का सवाब लिखा जाऐगा और उस दिन जो कुछ भी जमीन और आसमान के दरमियान मे है उस रोज़ेदार शख्स के लिऐ इस्तिग़फार करते है।

 

ये वो दिन है कि जिस दिन रहमते खुदा फैला दी जाती है और इस दिन की इबादत और ज़िक्रे खुदा के लिऐ इकट्ठा होना बेहद सवाब रखता है और इस दिन के लिऐ रोज़ा, इबादत, ज़िक्रे खुदा और ग़ुस्ल के अलावा दो अमल भी बताऐ गऐ है।

 

पहला अमलः 2 रकअत नमाज़ है कि जो चाश्त (तक़रीबन 10 से 12 के दरमियान) के वक्त पढ़ी जाती है और उसकी दोनो रकआत मे सूरे हम्द के 5 मर्तबा सूरा ऐ वश्शम्स पढ़े और बाकी नमाज़ फज्र की नमाज़ की तरह पढ़ कर तमाम करे।

 

और उसके बाद एक पढ़ेः

ला होला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्ला हिल अलीयील अज़ीम।

 

और ये दुआ पढ़ेः

या मुकीलल असरात अक़िलनी असरती, या मुजीबद दावात अजिब दअवती, या सामेअल असवात इस्मअ सौती, वरहमनी व तजावज़ अन सय्येआती, वमा इन्दी या ज़ल जलाले वल इकराम।

 

یا مُقیلَ العَثَراتِ اَقِلْنى عَثْرَتى یا مُجیبَ

الدَّعَواتِ اَجِبْ دَعْوَتى یا سامِعَ الاْصْواتِ اِسْمَعْ صَوْتى

وَارْحَمْنى وَتَجاوَزْ عَنْ سَیئاتى وَما عِنْدى یا ذَاالْجَلالِ وَالاْکرامِ

और ये दुआ पढ़ेः-

 

اَللّهُمَّ داحِىَ الْکعْبَةِ وَفالِقَ الْحَبَّةِ وَصارِفَ اللَّزْبَةِ وَکاشِفَ کلِّ کرْبَةٍ

اَسْئَلُک فى هذَا الْیوْمِ مِنْ اَیامِک الَّتى اَعْظَمْتَ حَقَّها وَاَقْدَمْتَ سَبْقَها

وَجَعَلْتَها عِنْدَ الْمُؤْمِنینَ وَدیعَةً وَاِلَیک ذَریعَةً وَبِرَحْمَتِک الْوَسیعَةِ

اَنْ تُصَلِّىَ عَلى مُحَمَّدٍ عَبْدِک الْمُنْتَجَبِ فِى الْمیثاقِ الْقَریبِ یوْمَ

التَّلاقِ فاتِقِ کلِّ رَتْقٍ وَداعٍ اِلى کلِّ حَقٍّ وَعَلى اَهْلِ بَیتِهِ الاَْطْهارِ

الْهُداةِ الْمَنارِ دَعائِمِ الْجَبّارِ وَوُلاةِ الْجَنَّةِ وَالنّارِ وَاَعْطِنا فى یوْمِنا

هذا مِنْ عَطآئِک الَْمخْزُونِ غَیرَ مَقْطوُعٍ وَلا مَمْنوُعٍ تَجْمَعُ لَنا بِهِ

التَّوْبَةَ وَحُسْنَ الاْوْبَةِ یا خَیرَ مَدْعُوٍّ وَاَکرَمَ مَرْجُوٍّ یا کفِىُّ یا وَفِىُّ یا

مَنْ لُطْفُهُ خَفِىُّ اُلْطُفْ لى بِلُطْفِک وَاَسْعِدْنى بِعَفْوِک وَاَیدْنى بِنَصْرِک

وَلا تُنْسِنى کریمَ ذِکرِک بِوُلاةِ اَمْرِک وَحَفَظَةِ سِرِّک وَاحْفَظْنى مِنْ

شَوایبِ الدَّهْرِ اِلى یوْمِ الْحَشْرِ وَالنَّشْرِ وَاَشْهِدْنى اَوْلِیآئَک عِنْدَ

خُرُوجِ نَفْسى وَحُلوُلِ رَمْسى وَانْقِطاعِ عَمَلى وَانْقِضآءِ اَجَلى

اَللّهُمَّ وَاذْکرْنى عَلى طوُلِ الْبِلى اِذا حَلَلْتُ بَینَ اَطْباقِ الثَّرى

وَنَسِینِى النّاسوُنَ مِنَ الْوَرى وَاَحْلِلْنى دارَ الْمُقامَةِ وَبَوِّئْنى مَنْزِلَ

الْکرامَةِ وَاجْعَلْنى مِنْ مُرافِقى اَوْلِیآئِک وَاَهْلِ اجْتِبآئِک وَاصْطِفآئِک

وَبارِک لى فى لِقآئِک وَارْزُقْنى حُسْنَ الْعَمَلِ قَبْلَ حُلوُلِ الاْجَلِ

بَریئاً مِنَ الزَّلَلِ وَسوَُّءِ الْخَطَلِ اَللّهُمَّ وَاَوْرِدْنى حَوْضَ نَبِیک مُحَمَّدٍ

صَلَّى اللّهُ عَلَیهِ وَ الِهِ وَاسْقِنى مِنْهُ مَشْرَباً رَوِیاً سآئِغاً هَنیئاً لا اَظْمَاءُ

بَعْدَهُ وَلا اُحَلاُ وِرْدَهُ وَلا عَنْهُ اُذادُ وَاجْعَلْهُ لى خَیرَ زادٍ وَاَوْفى میعادٍ

یوْمَ یقوُمُ الاْشْهادُ اَللّهُمَّ وَالْعَنْ جَبابِرَةَ الاْوَّلینَ وَالاَّْخِرینَ

وَبِحُقوُقِ اَوْلِیآئِک الْمُسْتَاْثِرینَ اَللّهُمَّ وَاقْصِمْ دَعآئِمَهُمْ وَاَهْلِک

اَشْیاعَهُمْ وَعامِلَهُمْ وَعَجِّلْ مَهالِکهُمْ وَاسْلُبْهُمْ مَمالِکهُمْ وَضَیقْ

عَلَیهِمْ مَسالِکهُمْ وَالْعَنْ مُساهِمَهُمْ وَمُشارِکهُمْ اَللّهُمَّ وَعَجِّلْ فَرَجَ

اَوْلِیآئِک وَارْدُدْ عَلَیهِمْ مَظالِمَهُمْ وَاَظْهِرْ بِالْحَقِّ قاَّئِمَهُمْ وَاجْعَلْهُ

لِدینِک مُنْتَصِراً وَبِاَمْرِک فى اَعْدآئِک مُؤْتَمِراً اَللّهُمَّ احْفُفْهُ بِمَلاَّئِکةِ

النَّصْرِ وَبِما اَلْقَیتَ اِلَیهِ مِنَ الاْمْرِ فى لَیلَةِ الْقَدْرِ مُنْتَقِماً لَک حَتّى

تَرْضى وَیعوُدَ دینُک بِهِ وَعَلى یدَیهِ جَدیداً غَضّاً وَیمْحَضَ الْحَقَّ

مَحْضاً وَیرْفُِضَ الْباطِلَ رَفْضاً اَللّهُمَّ صَلِّ عَلَیهِ وَعَلى جَمیعِ آبائِهِ

وَاجْعَلْنا مِنْ صَحْبِهِ وَاُسْرَتِهِ وَابْعَثْنا فى کرَّتِهِ حَتّى نَکوُنَ فى زَمانِهِ

مِنْ اَعْوانِهِ اَللّهُمَّ اَدْرِک بِنا قِیامَهُ وَاَشْهِدْنا اَیامَهُ وَصَلِّ عَلَیهِ [على

مُحَمَّد] وَارْدُدْ اِلَینا سَلامَهُ وَالسَّلامُ عَلَیهِ [عَلَیهِمْ] وَرَحْمَةُ اللّهِ وَبَرَکاتُهُ

 

इस रोज़ जियारते इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम भी मुस्तहब है।

 

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हवालाः मफातिहुल जिनान