जब पवित्र भावना तथा समस्त शर्तों के प्रति सचेत रहते हुए रोज़ा रखा जाता है तो यह रोज़ा मनुष्य को उसके हर प्रकार के कर्तव्यों के बारे में संवेदनशील बना देता है।
इस्लामी शिक्षाओं में दायित्व स्वीकार करने और उनके निर्वाह की भावना पर विशेष बल दिया गया है। इन शिक्षाओं में यहां तक कहा गया है कि जो भी अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता उसका कोई धर्म नहीं है। प्रत्येक मनुष्य के लिए ईश्वर ने कुछ कर्तव्य निर्धारित किये हैं। उदाहरण स्वरूप अपने शरीर तथा आत्मा के प्रति कर्तव्य, समाज के प्रति कर्तव्य, लोगों के प्रति विशेष कर्तव्य यहां तक कि ईश्वर की समस्त सृष्टि के लिए अलग-अलग प्रकार के कर्तव्य। इस्लाम ने समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों के प्रति उनकी स्थिति के अनुकूल ही दायित्व निर्धारित किये हैं।
उदाहरण स्वरूप जनता के प्रति शासकों का दायित्व, संतान के प्रति माता-पिता का दायित्व, एक दूसरे के प्रति पति-पत्नी का दायित्व, शिक्षक तथा विद्यार्थी के बीच परस्पर दायित्व इत्यादि। इसी प्रकार से इस्लाम ने समाज के सभी लोगों पर एक दूसरे के प्रति कुछ आम दायित्व रखे हैं जिन्हें अपनी क्षमता के अनुसार पूरा करना सभी का कर्तव्य है। इन कर्तव्यों में समाज सुधार, लोगों की समस्याओं का समाधान, समाजिक कठिनाइयों का निवारण तथा राष्ट्र की प्रतिरक्षा के दायित्व सम्मिलित हैं। इस संबन्ध में पवित्र क़ुरआन में बहुत सी आयतें मौजूद हैं। इसी प्रकार इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के बहुत से कथन भी पाए जाते हैं। सूरए बक़रा की आयत संख्या 22 में कहा गया है कि लोगों को ईमान वालों के साथ भलाई और उनके बीच सुधार का प्रयास करना चाहिए।