मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने कई शताब्दियों के बाद इब्ने तय्मिया के भ्रष्ठ विचारों का प्रचार करना आरंभ कर दिया। इन्ने तयमिया के भ्रष्ठ, ग़लत और फूट डालने वाले विचारों को १९वीं ईसवी शताब्दी के आरंभ में इतिहास की बहुत ही ख़राब व विषम स्थिति में प्रस्तुत किया गया। उस समय इस्लामी जगत को चारों ओर से पश्चिमी साम्राज्यवादियों के कड़े आक्रमणों का सामना था। ब्रिटेन भारत के बड़े भाग पर अपना आधिपत्य जमाने के साथ पूरब की ओर से फार्स की खाड़ी को अपने नियंत्रण में करने की चेष्टा में था। उसकी सेनाएं लगातार दक्षिण और पश्चिम की ओर से ईरान की ओर आगे बढ़ रही थीं। फ्रांसिसियों ने भी नेपोलियन के नेतृत्व में मिस्र, सीरिया और फिलिस्तीन का अतिग्रहण कर लिया और वे भारत में प्रवेश की चेष्टा में थे। रूस के ज़ार शासक भी ईरान और उसमानी साम्रज्य पर बारम्बार आक्रमण करके अपनी सत्ता क्षेत्रफल को फिलिस्तीन और फार्स की खाड़ी तक विस्तृत करना चाह रहे थे। यहां तक कि अमेरिकी भी उस समय उत्तरी अफ्रीक़ा के इस्लामी देशों पर लोभ की दृष्टि लगाये हुए थे। वे लीबिया और अलजीरिया के नगरों पर गोला बारी करके इस्लामी जगत में पैठ बनाने की जुगत में थे। इस कठिन स्थिति में मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने मुसलमानों को नास्तिक कहकर और अपने भ्रष्ठ विचारों को पेश करके इस्लामी एकता को कड़ा आघात पहुंचाया जबकि उस समय मुसलमानों को शत्रुओं के मुक़ाबले में एकता, समरसता और एक दूसरे से सहयोग की अत्यंत आवश्यता थी।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि उस समय ब्रिटेन मुसलमान राष्ट्रों के मध्य पैठ बनाने और उन्हें अपना उपनिवेश बनाने में आगे आगे था। बूढ़े साम्राज्य ब्रिटेन की प्रसिद्ध व प्रभावी शैली लोगों के मध्य फूट डालना और उनकी सम्पत्ति व स्रोतों को लूटना था। इसी परिप्रेक्ष्य में ब्रिटेन का प्रयास इस्लामी जगत में धार्मिक मतभेदों को हवा देना था। इसी कारण कुछ इतिहासकार वह्हाबी सम्प्रदाय के गठन को ब्रिटेन की गतिविधियों से असंबंधित नहीं मानते।
इतिहास में ब्रिटिश जासूस मिस्टर HAMFAR और मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के बीच संबंधों का उल्लेख किया गया है। मिस्टर हम्फरे इस्लामी देशों में ब्रिटेन का जासूस था जो विदित में इस्लामी चोला पहनकर मुसलमानों के मध्य फूट डालने के मार्गों की खोज में था। हम्फरे ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि इराक़ के दक्षिण में स्थित बसरा नगर में उसकी भेंट मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब से हुई। हम्फरे मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के बारे में कहता है" मुझे, अपना खोया मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब में मिल गया। वह धार्मिक नियमों के प्रति कटिबद्ध नहीं था। उसमें अहं भरा हुआ था और वह अपने समय के विद्वानों व धर्मगुरूओं से घृणा करता था वह स्वयं को सही समझता था यहां तक कि मुसलमानों के चार ख़लीफाओं को भी कोई महत्व नहीं देता था और वह क़ुरआन एवं सुन्नत के बारे में केवल अपने अल्प विचारों व ज्ञान पर भरोसा करता था। ये विशेषताएं उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी थीं और इन्हीं के माध्यम से मैंने उसमें प्रवेश किया और उस पर काम किया" स्वयं हम्फर के कथनानुसार "मैंने मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब को वह्हाबी नाम का सम्प्रदाय उत्पन्न करने के लिए उकसाया और उसके तथा मोहम्मद बिन सऊद के प्रति ब्रिटिश सरकार के समर्थन की घोषणा की।
जो चीज़ निश्चित है वह यह है कि धर्मगुरू और विद्वान लोग यहां तक कि मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के पिता और उसके भाई भी मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के अतार्किक एवं भ्रष्ठ विचारों के मुखर विरोधी थे। इस प्रकार से कि मात्र अपने पिता की मृत्यु के बाद मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने अपने भ्रष्ठ विचारों को व्यक्त किया। आरंभ से ही उसे अपने भ्रष्ठ विचारों के प्रकट करने में धर्मगुरूओं एवं लोगों के विरोधों का सामना था परंतु उसने अपने भ्रष्ठ विचारों को नहीं छोड़ा। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब सऊदी अरब के हुरैमला नगर में वह्हाबियत का प्रचार और अपने ग़लत विचारों को बयान करना आरंभ कर दिया। उसके इस कार्य से लोग क्रोधित व उत्तेजित हो उठे यहां तक कि वह इस नगर को छोड़ने पर बाध्य हो गया। वह हुरैमला नगर से ओअय्यना नगर चला गया। उस समय ओअय्यना नगर का शासक उसमान बिन माअमर था। उसने अब्दुल वह्हाब को अपने यहां स्वीकार कर लिया और अब्दुल वह्हाब ने भी इसके बदले में वचन दिया कि नज्द क्षेत्र के रहने वाले समस्त लोगों को उसमान बिन माअमर का आज्ञापालक बना देगा परंतु अहसा क्षेत्र के शासक की होशियारी के कारण उस्मान ने अब्दुल वह्हाब को ओअय्यना नगर से बाहर निकाल दिया।
११६० हिजरी कमरी में ओअय्यना से बाहर निकाल दिये जाने के बाद मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब नज्द के प्रसिद्ध नगर देरइय्या की ओर चला गया। उस समय मोहम्मद बिन सऊद अर्थात सऊद परिवार का दादा देरइय्या का शासक था। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने नगर के शासक का आह्वान किया कि वह उसके साथ सहकारिता करे और उसने मोहम्मद बिन सऊद से वादा किया कि भ्रष्ठ वह्हाबी विचारों को फैलाकर उसके शासन के क्षेत्रफल को विस्तृत करेगा। मोहम्मद बिन सऊद ने अब्दुल वह्हाब के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और परिणाम स्वरुप दोनों ने समझौता किया कि सरकार की बागडोर मोहम्मद बिन सऊद के हाथों में रहे और वह्हाबी विचारों का प्रचार अब्दुल वह्हाब करे। इस समझौते को मज़बूत बनाने के उद्देश्य से दोनों परिवारों के मध्य विवाह भी हो गया।
अब्दुल वह्हाब ने सऊद परिवार की सत्ता की छत्रछाया में अपने विचारों के प्रचार को विस्तृत किया। शीघ्र ही निकटवर्ती नगरों एवं क़बीलों पर आक्रमण आरंभ हो गये। अब्दुल वह्हाब ने पहला कार्य यह किया कि ओअय्यना नगर के चारों ओर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के साथियों की जो समाधियां व दर्शनस्थल थे उसे ध्वस्त करा दिया और उन मुसलमानों को अनेकेश्वरवादी व मूर्ति की पूजा करने वाला कहा तथा उनके नास्तिक होने का फतवा दिया जो ईश्वरीय दूतों को माध्यम बनाकर महान ईश्वर से दुआ करते थे। अब्दुल वह्हाब इस प्रकार के मुसलमानों की हत्या को वैध समझता था तथा उनकी धन- सम्पत्ति को ज़ब्त कर लेने को युद्ध में लूटा सामान समझता था। उसके बाद अब्दुल वह्हाब के अनुयाई उसके इसी फतवे को आधार बनाकर हज़ारों निर्दोष मुसलमानों की हत्या की। यहां पर यह जानना उचित होगा कि उस समय देरईय्या के लोग बहुत ही कठिन व निर्धनता की स्थिति में जीवन गुजार रहे थे परंतु इन आक्रमणों व युद्धों के कारण देरईय्या नगर में दूसरे मुसलमानों के लूटे सामानों की भरमार हो गयी।
आलूसी सुन्नी मुसलमान इतिहासकार है और उसका भी रूझान अब्दुल वह्हाब के विचारों की ओर है। वह "इब्ने बोशर नज्दी" नामक इतिहासकार की "तारीख़े नज्द" नामक पुस्तक के हवाले से इस प्रकार बयान करता है" मैं अर्थात इब्ने बोशर आरंभ में देरईय्या नगर के लोगों के बहुत निर्धन होने का साक्षी था परंतु बाद में यह नगर सऊद के काल में धनी नगर में परिवर्तित हो गया यहां तक कि इस नगर के हथियार भी सोने से सुसज्जित कर दिये गये। नगर के लोग अच्छे घोड़ों पर सवारी करते थे, मूल्यवान वस्त्र पहनते थे और धन- दौलत की हर आवश्यकता से सम्मन्न हो गये थे। इस सीमा तक कि ज़बान उन सबका उल्लेख करने से अक्षम है। इन सबके साथ इब्ने बोशर ने अपनी किताब में इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि यह अपार सम्पत्ति कहां से आई थी परंतु इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि नज्द के जिन नगरों के मुसलमानों व क़बीलों ने वह्हाबी विचारों को स्वीकार नहीं किया उन पर आक्रमण किया गया और उनकी सम्पत्ति लूटकर ये दौलत हाथ आई थी। लूटे हुए समस्त सामान शेख मोहम्मद के अधिकार में होता था और मोहम्मद बिन सऊद भी उसकी अनुमति से ही कुछ ले पाता था। इन लूटे गये सामानों के बटवारे में अब्दुल वह्हाब की मनमानी वाली शैली थी। वह मुसलमानों के लूटे हुए इन सामानों को कभी दो या तीन व्यक्तियों को दे देता था।
एकेश्वरवाद के बारे में मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब का जो ग़लत विचार था उसे स्वीकार करने के लिए वह विभिन्न नगरों के लोगों को आमंत्रित करता था। जो उसके निमंत्रण को स्वीकार करता था उसकी जान माल सुरक्षित होती थी और जो उसके निमंत्रण को स्वीकार नहीं करता था उसे अब्दुल वह्हाब इस्लाम का शत्रु समझता था और उसकी हत्या कर देने एवं उसके धन को हड़प लेने को वैध समझता था। भ्रष्ठ विचार के वह्हाबी, नज्द में और नज्द से बाहर जैसे यमन, हेजाज़ और सीरिया तथा इराक़ के आस पास के क्षेत्रों में जो युद्ध करते थे उसका आधार उनके यही भ्रष्ठ विचार थे। युद्ध के माध्यम से जिस नगर पर भी वे अधिकार करते थे वहां की हर चीज़ उनके लिए वैध थी और यदि वे उसे अपने सम्पत्ति में शामिल कर सकते थे तो सम्मिलित करते थे अन्यथा उस नगर को लूटने पर ही संतोष करते थे। जो लोग मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के विचारों से सहमत थे और उसके निमंत्रण को स्वीकार करते थे उन्हें चाहये कि वे उसकी आज्ञा पालन का वचन दें और जो लोग उसके मुक़ाबले के लिए उठ खड़े होते थे उनकी हत्या कर दी जाती थी। इस तरीक़े से अहसा नगर के फुसूल नाम के एक गांव के ३०० पुरुषों की हत्या कर दी गयी और उनकी सम्पत्ति को लूट लिया गया।