हदीसे ग़दीर
  • शीर्षक: हदीसे ग़दीर
  • लेखक: तर्जमा-सैय्यद क़मर ग़ाज़ी
  • स्रोत: गिरोहे मआरिफ़े इस्लामी
  • रिलीज की तारीख: 15:5:4 1-9-1403

हदीसे ग़दीर गिरोहे मआरिफ़े इस्लामी हदीसे ग़दीर गिरोहे मआरिफ़े इस्लामी 2 रज़ीतुका मिन बादी इमामन व हादियन।।[20]

यानी पैगम्बर (स.) ने अली (अ.) से फ़रमाया कि ऐ अली उठो कि मैनें तमको अपने बाद इमाम व हादी की शक्ल में मुंतखब कर लिया है।

ज़ाहिर है कि शाइर ने लफ़्ज़े मौला को जो पैगम्बर (स.) ने अपने कलाम में इस्तेमाल किया था इमामत, पेशवाई, हिदयत और रहबरी-ए- उम्मत के अलावा किसी दूसरे मअना में इस्तेमाल नही किया है। इस सूरत में कि यह शाइर अरब के फ़सीह व अहले लुग़त अफराद मे शुमार होता है।

और सिर्फ़ अरब के इस बुज़ुर्ग शाइर हस्सान ने ही इस लफ़ज़े मौला को इमामत के मअना में इस्तेमाल नही किया है बल्कि उसके बाद आने वाले तमाम इस्लामी शोअरा ने जिनमें ज़्यादातर अरब के मशहूर शोअरा व अदबा थे और इनमें से कुछ तो अर्बी ज़बान के उस्ताद शुमार होते थे, इस लफ़्ज़े मौला से वही मअना मुराद लिये हैं जो हस्सान ने मुराद लिये थे यानी इमामत व पेशवाई-ए- उम्मत।

* * *



दूसरी दलील

हज़रत अमीर अलैहिस्सलाम ने जो अशआर माविया को लिखे उनमें हदीसे ग़दीर के बारे में यह कहा कि

व औजबा ली विलायतहु अलैकुम।

रसूलुल्लाहि यौमः ग़दीरि खुम्मिन।। [21]

यानी अल्लाह के पैगम्बर स. ने मेरी विलायत को तुम्हारे ऊपर ग़दीर के दिन वाजिब किया है।

इमाम से बेहतर कौन शख्स है जो हमारे लिए इस हदीस की तफ़सीर कर सके और बताये कि ग़दीर के दिन अल्लाह के पैगम्बर (स.) ने विलायत को किस मअना में इस्तेमाल किया है ? क्या यह तफ़्सीर यह नही बताती कि वक़िया-ए- ग़दीर में मौजूद तमाम अफ़राद ने (लफ़्ज़े मौला से) इमामत व इजतेमाई रहबरी के अलावा कोई दूसरा मतलब अख़्ज़ नही किया था ?

* * *

तीसरी दलील

पैगम्बर स. ने मनकुन्तु मौलाहु कहने से पहले यह सवाल किया कि “ आलस्तु औवला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम ?” क्या मैं तुम्हारे नफ़्सों पर तुम से ज़्यादा हक़्क़े तसर्रुफ़ नही रखता हूँ ?

पैगम्बर के इस सवाल में लफ़्ज़े औवला बि नफ़सिन का इस्तेमाल हुआ है। पहले सब लोगों से अपनी औलवियत का इक़रार लिया और उसके बाद बिला फ़ासले इरशाद फ़रमाया “मन कुन्तु मौलाहु फ़ाहाज़ा अलीयुन मौलाहु ” यानी जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं।

इन दो जुम्लों को आपस में मिलाने से पैग़म्बरे इस्लाम (स.) क्या हदफ़ है ? क्या इसके अलावा और कोई हदफ़ हो सकता है कि बा नस्से कुरआन जो मक़ाम पैगम्बर अकरम (स.) को हासिल है वही अली (अ.) के लिए भी साबित करें ? सिर्फ़ इस फ़र्क़ के साथ कि वह पैगम्बर हैं और अली इमाम, नतीजे में हदीसे ग़दीर के मअना यह हों जाते हैं कि जिस जिस से मेरी औलवियत की निस्बत है उस उस से अली (अ.) को भी औलवियत की निस्बत है। [22]अगर पैगम्बर (स.) का इसके अलावा और कोई हदफ़ होता तो लोगों से अपनी औलवियत का इक़रार लेने की ज़रूरत नही थी। यह इंसाफ़ से कितनी गिरी हुई बात है कि इंसान पैगम्बर इस्लाम (स.) के इस पैग़ाम को नज़र अंदाज़ करे दे और हज़रत अली (अ.)की विलायत के क़रीनों की रोशनी से आँखें बन्द कर के ग़ुज़र जाये।

* * *

चौथी दलील

पैगम्बरे इस्लाम स. ने अपने कलाम के आग़ाज़ में लोगों से इस्लाम के तीन अहम उसूल का इक़रार लिया और फ़रमाया “ आलस्तुम तश्हदूना अन ला इलाहा इल्ला अल्लाह व अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहु व अन्न अल जन्नता हक़्क़ुन व अन्नारा हक़्क़ुन ? ” यानी क्या तुम गवाही देते हो कि अल्लाह के अलावा और कोई माअबूद नही है, मुहम्मद उसके अब्द व रसूल हैं और जन्नत व दोज़ख़ हक़ हैं ?

यह सब इक़रार कराने से क्या हदफ़ था ? क्या इसके अलावा कोई दूसरा हदफ़ है कि वह अली (अ.) के लिए जिस मक़ामो मनज़िलत को साबित करना चाहते थे उसके लिए लोगों के ज़हन को आमादा करें ताकि वह अच्छी तरह समझलें कि विलायत व खिलाफ़त का इक़रार दीन के उन तीनो उसूल की मानिंद है जिनका तुम सब इक़रार करते हो ? अगर “मौला” से दोस्त या मददगार मुराद लें तो इन जुमलो का आपसी रब्त ख़त्म हो जायेगा और कलाम की कोई अहमियत नही रह जायेगी। क्या ऐसा नही है ?

* * *

पाँचवी दलील

पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अपने ख़ुत्बे के शुरू में अपनी रेहलत के बारे में ख़बर देते हुए फरमाते हैं कि “ इन्नी औशकु अन उदआ फ़उजीबा” यानी क़रीब है कि मैं दावते हक़ पर लब्बैक कहूँ।[23]

यह जुमला इस बात की हिकायत कर रहा है कि पैगम्बर यह चाहते हैं कि अपने बाद के लिए कोई इंतेज़ाम करें और अपनी रेहलत के बाद पैदा होने वाले खला को पुर करें और जिससे यह ख़ला पुर हो सकता है वह एक ऐसे लायक़ व आलिम जानशीन का ताऐयुन है जो रसूले अकरम (स.) की रेहलत के बाद तमाम अमूर की ज़माम अपने हाथों मे संभाल ले। इसके अलावा कोई दूसरी सूरत नज़र नही आती।

जब भी हम विलायत की तफ़्सीर खिलाफ़त के अलावा किसी दूसरी चीज़ से करेंगे तो पैगम्बरे अकरम (स.) के जुमलों में पाया जाने वाला मनतक़ी राब्त टूट जायेगा। जबकि वह सबसे ज़्यादा फ़सीह व बलीग़ कलाम करने वाले हैं। मसल-ए- विलायत के लिए इससे रौशनतर और क्या क़रीना हो सकता है।

* * *

छटी दलील

पैगम्बरे अकरम स. ने मनकुन्तु मौलाहु....... जुमले के बाद फ़रमाया कि “ अल्लाहु अकबरु अला इकमालिद्दीन व इतमामि अन्नेअमत व रज़िया रब्बी बिरिसालति व अल विलायति लिअलीयिन मिन बअदी ”

अगर मौला से दोस्ती या मुसलमानों की मदद मुराद है तो अली (अ.) की दोस्ती, मवद्दत व मदद से दीन किस तरह कामिल हो गया और उसकी नेअमतें किस तरह पूरी हो गईँ ? सबसे रौशन यह बात है कि आप ने फ़रमाया कि अल्लाह मेरी रिसालत और मेरे बाद अली (अ.) की विलायत से राज़ी हो गया।[24] क्या यह सब खिलाफ़त के मअना पर गवाही नही है ?

* * *

सातवी दलील

इससे बढ़कर और क्या गवाही हो सकती है कि शेखैन (अबु बकर व उमर) और रसूले अकरम (स.) के असहाब ने हज़रत के मिम्बर से नीचे आने के बाद अली (अ.) को मुबारक बाद पेश की और मुबारकबादी का यह सिलसिला मग़रिब तक चलता रहा शैखैन (अबु बकर व उमर) वह पहले अफ़राद थे जिन्होंने इमाम को इन अलफ़ाज़ के साथ मुबारक बाद दी “ हनीयन लका या अली इबनि अबितालिब असबहता व अमसैता मौलाया व मौला कुल्लि मुमिनिन व मुमिनतिन”[25]

यानी ऐ अली इब्ने अबितालिब आपको मुबारक हो कि सुबह शाम मेरे और हर मोमिन मर्द और औरत के मौला हो गये।

अली (अ.) ने इस दिन कौनसा ऐसा मक़ाम हासिल किया था कि इस मुबारक बादी के मुसतहक़ क़रार पाये ? क्या मक़ामे खिलाफ़त, ज़आमत और उम्मत की रहबरी (जिसका उस दिन तक रसमी तौर पर ऐलान नही हुआ था ) इस मुबारकबादी की वजह नही थी ? मुहब्बत और दोस्ती कोई नई बात नही थी।

* * *

आठवी दलील

अगर इससे हज़रत अली (अ.) की दोस्ती मुराद थी तो इसके लिए लाज़िम नही था कि झुलसा देने वाली गर्मी में इस मसअले को बयान किया जाता, एक लाख से ज़्यादा अफ़राद के चलते क़ाफ़िले को रोका जाता, और तेज़ धूप में लोगों को चटयल मैदान के तपते हुए पत्थरों व संगरेज़ों पर बैठाकर मुफ़स्सल ख़ुत्बा बयान किया जाता।

* * *



क्या क़ुरआन ने तमाम अहले ईमान अफ़राद को एक दूसरे का भाई नही कहा है ? जैसा कि इरशाद होता है “इन्नमा अल मुमिनूना इख़वातुन [26]” मोमिन आपस में एक दूसरे के भाई हैं।

क्या क़ुरआन ने दूसरी आयतों में मोमेनी को एक दूसरे के दोस्त की शक्ल मुतार्रफ़ नही कराया है ? और अली अलैहिस्सलाम भी उसी साहिबे ईमान समाज के एक फ़र्द थे लिहाज़ा क्या ज़रूरत थी उनकी दोस्ती का ऐलान किया जाये ? और अगर यह फ़र्ज़ कर भी लिया जाये कि इस ऐलान में दोस्ती ही मद्दे नज़र थी तो फ़िर इसके लिए नासाज़गार माहौल में इन इन्तेज़ामात की ज़रूरत नही थी, यह काम मदीने में भी किया जा सकता था। यक़ीनन कोई बहुत अहम मसअला दरकार था जिसके लिए इस्तस्नाई मुक़द्देमात की ज़रूरत थी। इस तरह के इन्तज़ामात पैगम्बर की ज़िन्दगी में कभी पहले नही देखे गये और न ही इस वाक़िये के बाद नज़र आये।

***



अब आप फ़ैसला करें

अगर इन रौशन क़राइन की मौजूदगी में भी कोई शक करे कि पैगम्बर अकतरम (स.) का मक़सद इमामत व खिलाफ़त नही था तो क्या यह ताज्जुब वाली बात नही है ? वह अफ़राद जो इसमें शक करते हैं अपने दिल को किस तरह मुतमइन करेंगे और रोज़े महशर अल्लाह को क्या जवाब देंगे ?

यक़ीनन अगर तमाम मुसलमान ताअस्सुब को छोड़ कर अज़ सरे नौ हदीसे ग़दीर पर तहक़ीक़ करें तो दिल खवाह नतीजों पर पहुँचेंगे और जहाँ यह काम मुसलमानों के मुख्तलिफ़ फ़िर्क़ों में आपसी इत्तेहाद में मजबूती का सबब बनेगा वहीँ इस से इस्लामी समाज एक नयी शक्ल हासिल कर लेगा।

***

तीन अहम हदीसें!

इस मक़ाले के अखीर में तीन अहम हदीसों पर भी तवज्जोह फ़रमाईये।

1- हक़ किसके साथ है

ज़ोजाते पैगम्बरे इस्लाम (स.) उम्मे सलमा और आइशा कहती हैं कि हमने पैगम्बरे इस्लाम (स.) से सुना है कि उन्हो फ़रमाया “अलीयुन मअल हक़्क़ि व हक़्क़ु माअ अलीयिन लन यफ़तरिक़ा हत्ता यरदा अलय्यल हौज़”

तर्जमा – अली हक़ के साथ है और हक़ अली के साथ है। और यह हर गिज़ एक दूसरे से जुदा नही हो सकते जब तक होज़े कौसर पर मेरे पास न पहुँच जाये।

यह हदीस अहले सुन्नत की बहुत सी मशहूर किताबों में मौजूद है। अल्लामा अमीनी ने इन किताबों का ज़िक्र अलग़दीर की तीसरी जिल्द में किया है।[27]

अहले सुन्नत के मशहूर मुफ़स्सिर फ़ख़रे राज़ी ने तफ़सीर कबीर में सूरए हम्द की तफ़सीर के तहत लिखा है कि “हज़रत अली अलैहिस्सलाम बिस्मिल्लाह को बलन्द आवाज़ से पढ़ते थे और यह बात तवातुर से साबित है कि जो दीन में अली की इक़्तदा करता है वह हिदायत याफ़्ता है। इसकी दलील पैगम्बर (स.) की यह हदीस है कि आपने फ़रमाया “अल्लाहुम्मा अदरिल हक़्क़ा मअ अलीयिन हैसु दार।” तर्जमा – ऐ अल्लाह तू हक़ को उधर मोड़ दे जिधर अली मुड़े।[28]

काबिले तवज्जोह है यह हदीस जो यह कह रही है कि अली की ज़ात हक़ का मरकज़ है

* * *







2- पैमाने बरादरी

पैगम्बर अकरम (स.) के असहाब के एक मशहूर गिरोह ने इस हदीस को पैगम्बर (स.) नक़्ल किया है।

“ अख़ा रसूलुल्लाहि (स.) बैना असहाबिहि फ़अख़ा बैना अबिबक्र व उमर व फ़ुलानुन व फ़ुलानुन फ़जआ अली (रज़ियाल्लहु अन्हु) फ़क़ाला अख़ीता बैना असहाबिक व लम तुवाख़ बैनी व बैना अहद ? फ़क़ाला रसूलुल्लाहि (स.) अन्ता अख़ी फ़ी अद्दुनिया वल आख़िरति।”

तर्जमा- “पैगम्बर (स.) ने अपने असहाब के बीच भाई का रिश्ता क़ाइम किया अबुबकर को उमर का भाई बनाया और इसी तरह सबको एक दूसरे का भाई बनाया। उसी वक़्त हज़रत अली अलैहिस्सलाम हज़रत की ख़िदमत में तशरीफ़ लाये और अर्ज़ किया कि आपने सबके दरमियान बरादरी का रिश्ता क़ाइम कर दिया लेकिन मुझे किसी का भाई नही बनाया। पैगम्बरे अकरम (स.) ने फ़रमाया आप दुनिया और आख़ेरत में मेरे भाई हैं।”

इसी से मिलता जुलता मज़मून अहले सुन्नत की किताबों में 49 जगहों पर ज़िक्र हुआ है।[29]

क्या हज़रत अली अलैहिस्सलाम और पैगम्बरे अकरम (स.) के दरमियान बरादरी का रिश्ता इस बात की दलील नही है कि वह उम्मत में सबसे अफ़ज़लो आला हैं ? क्या अफ़ज़ल के होते हुए मफ़ज़ूल के पास जाना चाहिए ?

* * *

3- निजात का तन्हा ज़रिया

अबुज़र ने खाना-ए-काबा के दर को पकड़ कर कहा कि जो मुझे जानता है, वह जानता है और जो नही जानता वह जान ले कि मैं अबुज़र हूँ, मैंने पैगम्बरे अकरम (स.) से सुना है कि उन्होनें फ़रमाया “ मसलु अहलुबैती फ़ी कुम मसलु सफ़ीनति नूह मन रकबहा नजा व मन तख़ल्लफ़ा अन्हा ग़रक़ा।”

“तुम्हारे दरमियान मेरे अहले बैत की मिसाल किश्ती-ए-नूह जैसी हैं जो इस पर सवार होगा वह निजात पायेगा और जो इससे रूगरदानी करेगा वह हलाक होगा।[30]

जिस दिन तूफ़ाने नूह ने ज़मीन को अपनी गिरफ़्त में लिया था उस दिन नूह अलैहिस्सलाम की किश्ती के अलावा निजात का कोई दूसरा ज़रिया नही था। यहाँ तक कि वह ऊँचा पहाड़ भी जिसकी चौटी पर नूह (अ.) का बेटा बैठा हुआ था निजात न दे सका।

क्या पैगम्बर के फ़रमान के मुताबिक़ उनके बाद अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के दामन से वाबस्ता होने के अलावा निजात का कोई दूसरा रास्ता है ?

* *

गिरोहे मआरिफ़ व तहक़ीक़ाते इस्लामी (क़ुम)

रमज़ान उल मुबारक 1422 हिजरी

अनुवादक- सैय्यद क़मर ग़ाज़ी






--------------------------------------------------------------------------------

[1] यह जगह अहराम के मीक़ात की है और माज़ी में यहाँ से इराक़ मिस्र और मदीने के रास्ते जुदा हो जाते थे।

[2] राबिग अब भी मक्के और मदीने के बीच में है।

[3] सूरए मायदा आयत न.67

[4] पैगम्बर ने इतमिनान के लिए इस जुम्ले को तीन बार कहा ताकि बाद मे कोई मुग़ालता न हो।

[5] यह पूरी हदीसे ग़दीर या फ़क़त इसका पहला हिस्सा या प़क़त दूसरा हिस्सा इन मुसनदों में आया है। क-मुसनद ऊब्ने हंबल जिल्द 1 पेज न. 256 ख- तारीखे दमिश्क़ जिल्द42 पेज न. 207, 208, 448 ग- खसाइसे निसाई पेज न. 181 घ- अल मोजमुल कबीर जिल्द 17 पेज न. 39 ङ- सुनने तिरमीज़ी जिल्द 5 पेज न. 633 च- अल मुसतदरक अलल सहीहैन जिल्द 13 पेज न. 135 छ- अल मोजमुल औसत जिल्द 6 पेज न. 95 ज- मुसनदे अबी यअली जिल्द 1 पेज न. 280 अल महासिन वल मसावी पेज न. 41 झ- मनाक़िबे खवारज़मी पेज न. 104 व दूसरी किताबें।

[6] इस खुत्बे को अहले सुन्नत के बहुत से मशहूर उलमा ने अपनी किताबों में ज़िक्र किया है। जैसे क- मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 84,88,118,119,152,332,281,331 व 370 ख- सुनने इब्ने माजह जिल्द 1 पेज न. 55 व 58 ग- अल मुस्तदरक अलल सहीहैन हाकिम नेशापुरी जिल्द 3 पेज न. 118 व 613 घ- सुनने तिरमीज़ी जिल्द 5 पेज न. 633 ङ- फ़तहुलबारी जिल्द 79 पेज न. 74 च- तारीख़े ख़तीबे बग़दादी जिल्द 8 पेज न.290 छ-तारीखुल खुलफ़ा व सयूती 114 व दूसरी किताबें।

[7] सूरए माइदह आयत 3व 67

[8] वफ़ायातुल आयान 1/60

[9] वफ़ायातुल आयान 2/223

[10] तरजमा आसारूल बाक़िया पेज 395 व अलग़दीर 1/267

[11] समारूल क़ुलूब511

[12] उमर इब्ने खत्ताब की मुबारक बादी का वाक़िआ अहले सुन्नत की बहुतसी किताबों में ज़िक्र हुआ है। इनमें से खास खास यह हैं-क-मुसनद इब्ने हंबल जिल्द6 पेज न.401 ख-अलबिदाया वन निहाया जिल्द 5 पेज न.209 ग-अलफ़सूलुल मुहिम्माह इब्ने सब्बाग़ पेज न.40 घ- फराइदुस् सिमतैन जिल्द 1 पेज न.71 इसी तरह अबु बकर उमर उस्मान तलहा व ज़ुबैर की मुबारक बादी का माजरा बहुत सी दूसरी किताबों में बयान हुआ है। जैसे मनाक़िबे अली इब्ने अबी तालिब तालीफ़ अहमद बिन मुहम्मद तबरी अल ग़दीर जिल्द 1 पेज न. 270)

[13] इस अहम सनद का ज़िक्र एक दूसरी जगह पर करेंगे।

[14] सनदों का यह मजमुआ अलग़दीर की पहली जिल्द में मौजूद है जो अहले सुन्नत की मशहूर किताबों से जमा किया गया है।

[15] सूरए माइदा आयत न.3

[16] हस्सान के अशआर बहुत सी किताबों में नक़्ल हुए हैं इनमें से कुछ यह हैं क- मनाक़िबे खवारज़मी पेज न.135 ख-मक़तलुल हुसैन खवारज़मी जिल्द 1पेज़ न.47 ग- फ़राइदुस्समतैन जिल्द1 पेज़ न. 73 व 74 घ-अन्नूरूल मुशतअल पेज न.56 ङ-अलमनाक़िबे कौसर जिल्द 1 पेज न. 118 व 362.



[17] यह एहतेजाज जिसको इस्तलाह में मुनाशेदह कहा जाता है हस्बे ज़ैल किताबों में बयान हुआ है। क-मनाक़िबे अखतब खवारज़मी हनफ़ी पेज न. 217 ख- फ़राइदुस्समतैन हमवीनी बाबे 58 ग- वद्दुर्रुन्नज़ीम इब्ने हातम शामी घ-अस्सवाएक़ुल मुहर्रेक़ा इब्ने हज्रे अस्क़लानी पेज़ न.75 ङ-अमाली इब्ने उक़दह पेज न. 7 व 212 च- शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज न. 61 छ- अल इस्तिआब इब्ने अब्दुल बर्र जिल्द 3 पेज न. 35 ज- तफ़सीरे तबरी जिल्द 3 पेज न.417 सूरए माइदा की 55वी आयत के तहत।

[18] क- फ़राइदुस्समतैन सम्ते अव्वल बाब 58 ख-शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 1 पेज न. 362 ग-असदुलग़ाब्बा जिल्द 3पेज न.307 व जिल्द 5 पेज न.205 घ- अल असाबा इब्ने हज्रे अस्क़लानी जिल्द 2 पेज न. 408 व जिल्द 4 पेज न.80 ङ-मुसनदे अहमदजिल्द 1 पेज 84 व 88 च- अलबिदाया वन्निहाया इब्ने कसीर शामी जिल्द 5 पेज न. 210 व जिल्द 7 पेज न. 348 छ-मजमउज़्ज़वाइद हीतमी जिल्द 9 पेज न. 106 ज-ज़ख़ाइरिल उक़बा पेज न.67( अलग़दीर जिल्द 1 पेज न.163व 164.

[19] क- अस्नल मतालिब शम्सुद्दीन शाफ़ेई तिब्क़े नख़ले सखावी फ़ी ज़ौइल्लामेए जिलेद 9 पेज 256 ख-अलबदरुत्तालेअ शौकानी जिल्द 2 पेज न.297 ग- शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज न. 273 घ- मनाक़िबे अल्लामा हनॉफ़ी पेज न. 130 ङ- बलाग़ातुन्नसा पेज न.72 च- अलअक़दुल फ़रीद जिल्द 1 पेज न.162 छ- सब्हुल अशा जिल्द 1 पेज न.259 ज-मरूजुज़्ज़हब इब्ने मसऊद शाफ़ई जिल्द 2 पेज न. 49 झ- यनाबी उल मवद्दत पेज न. 486.

[20] इन अशआर का हवाला पहले दिया जा चुका है।

[21] मरहूम अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की दूसरी जिल्द में पेज न. 25-30 पर इस शेर को दूसरे अशआर के साथ 11 शिया उलमा और 26 सुन्नी उलमा के हवाले से नक़्ल किया है।

[22] “अलस्तु औला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम” इस जुम्ले को अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की पहली जिल्द के पेज न. 371 पर आलमे इस्लाम के 64 महद्देसीन व मुवर्रेख़ीन से नक़्ल किया है।

[23] अलग़दीर जिल्द 1 पेज न. 26,27,30,32,333,34,36,37,47 और 176 पर इस मतलब को अहले सुन्नत की किताबों जैसे सही तिरमिज़ी जिल्द 2 पेज न. 298, अलफ़सूलुल मुहिम्मह इब्ने सब्बाग़ पेज न. 25, अलमनाक़िब उस सलासह हाफ़िज़ अबिल फ़तूह पेज न. 19 अलबिदायह वन्निहायह इब्ने कसीर जिल्द 5 पेज न. 209 व जिल्द 7 पेज न. 347 , अस्सवाएक़ुल मुहर्रिकह पेज न. 25, मजमिउज़्ज़वाइद हीतमी जिल्द9 पेज न.165 के हवाले से बयान किया गया है।

[24] अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की पहली जिल्द के पेज न. 43,165, 231, 232, 235 पर हदीस के इस हिस्से का हवाला इब्ने जरीर की किताब अलविलायत पेज न. 310, तफ़सीरे इब्ने कसीर जिल्द 2 पेज न. 14, तफ़सीरे दुर्रे मनसूर जिल्द 2 पेज न. 259, अलइतक़ान जिल्द 1 पेज न. 31, मिफ़ताहुन्निजाह बदख़शी पेज न. 220, मा नज़लः मिनल क़ुरआन फ़ी अलियिन अबुनईमे इस्फ़हानी, तारीखे खतीबे बग़दादी जिल्द 4 पेज न. 290, मनाक़िबे खवारज़मी पेज न. 80, अल खसाइसुल अलविया अबुल फ़तह नतनज़ी पेज न. 43, तज़किराए सिब्ते इब्ने जोज़ी पेज न. 18, फ़राइदुस्समतैन बाब 12, से दिया है।

[25] अलग़दीर जिल्द 1 पेज न. 270, 283.

[26] सूरए हुजरात आयत न. 10

[27] इस हदीस को मुहम्मद बिन अबि बक्र व अबुज़र व अबु सईद ख़ुदरी व दूसरे लोगों ने पैगम्बर (स.) से नक़्ल किया है। (अल ग़दीर जिल्द 3)

[28] तफ़सीरे कबीर जिल्द 1/205

[29] अल्लामा अमीने अपनी किताब अलग़दीर की तीसरी जिल्द में इन पचास की पचास हदीसों का ज़िक्र उनके हवालों के साथ किया है।

[30] मसतदरके हाकिम जिल्द 2/150 हैदराबाद से छपी हुई। इसके अलावा अहले सुन्नत की कम से कम तीस मशहूर किताबों में इस हदीस को नक़्ल किया गया है।