अहलेबैत की क़ब्रों के साथ मुतावक्किल अब्बासी का सुलूक
  • शीर्षक: अहलेबैत की क़ब्रों के साथ मुतावक्किल अब्बासी का सुलूक
  • लेखक:
  • स्रोत:
  • रिलीज की तारीख: 19:45:59 1-10-1403

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) मदीने ही में थे कि जि़लहिज 222 हिजरी में अबू अल फ़ज़ल जाफ़र मुतावक्किल अब्बासी तख़्ते खि़लाफ़त पर मुतामक्किन होने के बाद इसने वह हरकतें शुरू कीं जिन्होने ज़ारे दमिश्क़ यज़ीद को भी शर्मा दिया।


मुवर्रिख़ निगार में मुतावक्किल अब्बासी को वही दर्जा हासिल है जो बनी उम्मया में यज़ीद को हासिल था। यह दोनों अपने ज़ाती किरदार के अलावा जो कुछ आले मौहम्मद स. के साथ करते रहे उससे तारीख़े इस्लाम सख़्त शर्मिन्दा है। मुतावक्किल के मुताल्लिक़ मुवर्रिख़ इब्ने असीर लिखता है कि यह अली बिन अबी तालिब (अ.स.) और उनके अहले बैत से सख्त बुग़ज़ रखता था।


दमेरी का कहना है कि मोतावक्किल हज़रत अली (अ.स.) से बुग़ज़ शदीद रखता था और उनकी मनक़सत किया करता था। तारीख़ अबुल फि़दा में है कि मुतावक्किल ने शायर इब्ने सक़ीयत को इस जुर्म कि उसने मुतावक्किल के इस सवाल के जवाब में मेरे बेटे मोताज़ और मोइद बेहतर हैं या अली (अ.स.) के बेटे हसन (अ.स.) हुसैन (अ.स.) यह कहा था कि तेरे बेटों को मैं हसनैन के ग़ुलाम क़म्बर के बराबर भी नहीं समझता। मोतावक्किल ने उनकी ज़बान गुद्दी से खिचवा ली थी , मोतावक्किल की जि़न्दगी का एक बदतरीन और सियाह ज़माना आले मौहम्मद स. की क़ब्रों को मिसमार करना है। इसके आम हालात यह हैं कि यह बड़ा ज़ालिम दाएम उल ख़ुम्र और अय्याश बादशह था। इसकी चार हज़ार कनीज़े थीं। इन सब से मुजामेअत कर चुका था। इसके दरबार में हज़ल और मसख़्रा पन बहुत होता था , जो तमसखुर में बढ़ कर होता वही इसका ज़्यादा क़रीब होता था। वह महफि़ले बज़म में मुसाहेबों और नदीमों के साथ तकलीफ़ और ख़ुश तबइयां करता था , कभी मजलिस में शेर को छुड़ा देता था , कभी किसी की आस्तीन में सांप छोड़ देता था , जब वह काटता तो तरयाक़ से मदावा करता कभी मटकों मे बिच्छू भरवा कर उन्हें मजलिस में तुड़वा देता था , वह मजलिस में फैल जाते किसी को हरकत करने का यारा न होता। उसने एक फ़रमान की रू से मज़हब मोताजि़ला को खिलाफ़े हुकूमत क़रार दिया था। मोताजि़लयों को सरकारी ओहदों से माज़ूल कर दिया था। अली (अ.स.) और औलादे अली (अ.स.) से दुश्मनी रखता था।


सेवती लिखता है कि मुतावक्किल नासबी था। अली (अ.स.) और औलादे नबी स. का दुश्मन था। साहबे गुलज़ार शाही लिखते हैं कि इसके वक़्त में सादात बेचारे मुसीबत के मारे जिला वतन हो गये। करबला के रौज़े जो उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने बनवाये थे और उन रोज़ों के गिर्द के मकानात उसने मिसमार करवा दिये और लोगों को जि़यारत से मना किया। साहबे हबीब अस सियर लिखते हैं कि 236 हिजरी में मुतावक्किल ने हुक्म दिया कि कोई मज़ारे हैदरे करार और उनकी औलाद की ज़्यारत को न जाया करें और हुक्म दिया कि इमाम हुसैन (अ.स.) और शोहदाए करबला के रौज़े को हमवार कर के उन पर ज़राअत के लिये पानी छोड़ दें और तारीख़ गुज़ीदा और तारीख़े कामिल में है कि मुतावक्किल ने हुक्म दिया कि इमाम हुसैन (अ.स.) के मज़ार और उसके गिर्द के मकानात वगै़रह मुन्हदिम कर के वहां ज़राअत की जाए और लोगों को उस मक़ाम तक जाने की मुमानीयत कर के यह मुनादी करा दी कि जो शख़्स वहां दिखाई देगा वह क़ैद किया जायेगा। तवारीख़ में है कि हर चन्द फ़रमा बरों ने कोशिश की मगर पानी इमाम और तमाम शोहदा ए इतरते ताहेरा की क़ब्रों पर जारी न हुआ जिस से खि़लक़त को सख़्त हैरत हुई और उस वक़्त से और इसी सबब से उस मशहदे मुक़द्दस को हायर कहने लगे। मुतावक्किल की इस हरकत से मुसलमानों को सख़्त सदमा हुआ। अहले बग़दाद ने मस्जिदों और घरों की दिवारों पर उसे गालियां लिखी और हुजूमें अशआर कहे। इस बनी फ़ातेमा से बागे़ फि़दक भी छीन लिया था। ग़ैर मुस्लिमों को ओहदों से बरतरफ़ कर दिया था। नसारा को हुक्म दिया कि गले में जि़न्नार न बांधें , घोड़े पर सवार न हों , बल्कि गधे और खच्चर पर सवार हों और रक़ाबे काठ की रखें। 234 हिजरी में उसने तमाम मोहद्देसीन को सामर्रा में जमा किया और इनाम व इकराम दे कर हुक्म दिया कि सिफ़ात व रोयत व ख़ल्क़े क़ुरआन के मुताअल्लिक़ हदीसे बयान करें। चुनाचे इसी लिये अबू बर्क इब्ने शीबा को जामा मस्जिद रसाफ़ा में और उनके भाई उसमान को जामा मन्सूर में मुक़र्रर किया। इन दोनों के वाज़ में हर रोज़ क़रीब हज़ार आदमी जमा होते थे। सियूती लिखता है कि मोतावक्किल वह पहला ख़लीफ़ा है जिसने शाफ़ेई मज़हब इख़्तेयार किया। मोतावक्किल के ज़माने में बड़ी बड़ी आफ़तें नाजि़ल हुईं। बहुत से इलाक़ों मे ज़लज़ले आए , ज़मीनें दस गईं , आग लगीं , आसमान से हौलनाक अवाज़ें सुनाई दीं। बादे समूम से बहुत से आदमीं और जानवर हलाक हुए। आसमान से मिसले टिडडियों के तारे टूटे। दस दस रतल के पत्थर आसमान से बरसे।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 65)


मक़ामे ज़खार मे है कि मोतावक्किल चुंकि हज़रत अली (अ.स.) से दुश्मनी रखता था इसका मुस्तकि़ल रवय्या यह था कि वह ऐसे लोगों को अपने पास रखता था जो अमीरूल मोमिनीन से बुग़्ज़ व अनाद रखते थे और उनकी तौहीन में बसर्रत महसूस करते थे। जैसे इब्ने जहम शायर , उमर बिन फर्जरहजी अबू अलहज़ इब्ने अतरजा , अबू अल अबर यह लोग मोतावक्किल को हमेशा औलादे अली के क़त्ल की तरफ़ मोतावज्जा करते थे और इससे कहते थे कि अगर तूने उन्हें बाक़ी रहने दिया तो यह एक न एक दिन तेरी सलतनत पर क़ब्ज़ा कर लेगें। इन लोगों के हर वक़्त उभारने का नतीजा यह हुआ कि दिल में आले मौहम्मद स. की दुश्मनी पूरी तरह क़ाएम हो गई। वह चुंकि गाने वाली औरतों का शायक़ था लेहाज़ा उसने शराब पीने के बाद एक ऐसी औरत को तलब किया जिससे वह बहुत ज़्यादा मानूस था। लोगों ने कहा कि दूसरी औरतें हाजि़र हैं इनसे काम निकाला जाए वह आ जाएगी। चुनान्चे ऐसा ही हुआ। जब वह थोड़ी देर बाद पहुंची तो बादशाह ने पूछा कि कहां गई थीं ? उसने कहा मैं हज करने गई थी। मोतावक्किल ने कहा माहे शाबान में कौन हज करता है। सच बता ? इसने जवाब दियाः इमाम हुसैन (अ.स.) की जि़यारत के लिये चन्द औरतों के हमराह चली गई थी। यह सुन कर मोतावक्किल बहुत ग़ज़ब नाक हुआ और उसे क़ैद करा दिया। इसका तमाम माल असबाब ज़ब्त कर लिया और लोगों को ज़ियारते करबला से रोक दिया और तीन रोज़ के बाद मनादी कर दी कि जो शख़्स हुसैन (अ.स.) की ज़्यारत को जायेगा क़ैद किया जायेगा और हर तरफ़ एक एक मील के फ़ासले से पहरे बिठा दिये कि जो शख़्स ज़्यारत को जाता हुआ पाया जाऐ फौरन क़ैद में भैज दिया जाए। फिर एक नौ मुस्लिम यहूदी जिसका नाम वैरिज था को हुक्म दिया कि करबला जा कर हुसैन (अ.स.) की क़ब्र का निशान मिटा दे और उस जगह को जुतवा कर वहां खेत बनवा दे और ज़रीह को किसी तरह फिकवा दे। हुक्म पाते ही नौ मुस्लिम यहूदी जिसे इस्लाम और इस्लाम के बानीयों का सही ताअर्रूफ़ भी न था तामील के लिया रवाना हो गया और वहां पहुंच कर दो सौ जरीब ज़मीन उसने जुत्वा डाली। जब क़ब्रे मुनव्वरा इमाम हुसैन (अ.स.) को जोतने के लिये आगे बढ़ा तो मुसलमानों ने तामीले हुक्म से इनकार कर दिया और कहा कि यह फ़रज़न्दे रसूल स. हैं और शहीद हैं। क़ुरान मजीद इन्हें जि़न्दा बताता है हम हरगजि़ ऐसी नाजायज़ हरकत नहीं कर सकते। यह सुन कर विरज ने यहूदियों से मदद ली , मगर कामयाब न हुआ। उसके बाद नहर काट कर क़ब्रे मुनव्वरा को ज़ेरे आब करना चाहा। पानी नहर में चल कर जब क़ब्र के क़रीब पहुंचा तो उस पर रवां न हुआ बल्कि इसके इर्द गिर्द जारी हो गया। क़ब्रे मुबराक ख़ुश्क ही रही। इस यहूदी ने बड़ी कोशिश की , लेकिन कामयाबी हासिल न कर सका। वह ज़मीन जहां तक पानी फैला हुआ था उसे हाएर कहते हैं। किताबे तस्वीरे अज़ा में ब हवाले किताब सराएर मरक़ूम है इस ज़मीन को हाएर इस सबब से कहते हैं कि लुग़ते अरब में हाएर के मानी ज़मीन पस्त के हैं। इस जगह बहता हुआ पानी पहुंच कर साकिन और हैरान हो जाता है क्योंकि बहने का रास्ता नहीं पाता।


शैख़ शहीद अलैहा रहमता का कहना है कि ज़माना ए मोतावक्किल में चुकि आपकी क़ब्र के निशान को मिटाने के लिये पानी जारी किया गया था और वहां पहुंच कर ब एजाज़े हुसैनी हैरान रह गया था और उस पर जारी नहीं हो सका इस लिये इस मुक़ाम को जिसमें पानी ठहरा हुआ था हाएर कहते हैं। सेवती तारीख़ अल ख़ुलफ़ा में लिखता है कि यह वाकि़या इन्हेदामे क़ब्रे इमाम हुसैन (अ.स.) 236 हिजरी का है उसने हुक्म दिया था कि इमाम हुसैन (अ.स.) की क़ब्र ढा दी जाए और निशाने क़ब्र मिटा दिया जाए और उनके मज़ार के इर्द गिर्द जितने मकानात हैं उन्हें भी मिस्मार कर के उस मुक़ाम को एक सहरा की शक्ल दे दी जाए और वहां पर खेती की जाए और लागों को ज़ियारते इमाम हुसैन (अ.स.) से क़तअन रोक दिया। इसके बाद सेवती लिखता है मुतावक्किल बड़ा नासबी था उसके इस फ़ेल से मुसलमानों में सख़्त हैजान पैदा हो गया और लागों ने उसकी हजो की और दीवारों पर इसके लिये गालियां लिखीं यही कुछ किताब हबीब उस सियर तारीख़े इस्लाम , तारीख़े कामिल , जिलाउल अयून , क़ुम क़ाम ज़खारे , अमाली शैख़ तूसी वग़ैरा में है।


अल्लामा सयूती लिखते हैं कि इस मौक़े पर जिन बहुत से शायरो ने अशआर लिखे उनमे से एक शायर ने कई शेर कहें हैं जिनका तरजुमा यह है।


1. ख़ुदा की क़सम बनी उमय्या ने अपने नबी के नवासे को करबला में भूखा और प्यासा ज़ुल्मो जौर के साथ क़त्ल कर दिया।

2. तो बनी अब्बास जो रसूल के चचा की औलाद हैं उन्होंने भी उन पर ज़ुल्म में कमी नही की और उनकी क़ब्र खुदवा कर उसी कि़स्म के ज़ुल्म का इरतेक़ाब किया है ।

3. बनी अब्बास को इस कि़स्म का सदमा था कि वह क़त्ले हुसैन (अ.स.) में शरीक न हो सके तो उन्होंने इस सदमें की आग को बुझाने के लिये हज़रत की हडडियों पर धावा बोल दिया।

(तारीख़ अल ख़ुलफ़ा सफ़ा 237)


अमाली शैख़ तूसी में है कि मोतावक्किल का फि़रस्तादा वह जब जि़्यारत से मना करने के लिये करबला पहुंचा तो वहां के लोगों ने ज़्यारत न करने से साफ़ इन्कार कर दिया और कहा कि अगर मोतावक्किल सब को क़त्ल कर दे तब ही यह सिलसिला बन्द हो सकता है। उसने वापस जाकर मुतावक्किल से वाकि़या बयान किया तो 247 हिजरी तक के लिये ख़ामोश हो गया।


तवारीख़ में है कि ख़लीफ़ा के हुक्म के मुताबिक़ अमीरे फ़ौज ने करबला वालों को ज़ियारते इमाम हुसैन (अ.स.) करने से रोकना चाहा तो उन लोगों ने फ़ौज से मरउब होने के बजाए मुक़ाबले का प्रोग्राम बना लिया और अपनी जानों पर खेल कर अतराफ़ व जवानिब से दस हज़ार अफ़राद जमा कर लिये और सरकारी फ़ौज के बिल मुक़ाबिल औकर कहा कि अगर मुतावक्किल हम में से एक एक को क़त्ल कर डाले तब भी यह सिलसिला बन्द न होगा। हमारी औलादें हमारी नस्लें इस सुन्नते ज़्यारत को अदा करेगी। सुनों हमारे आबाओ अजदाद वही करते चले आए जो हम कर रहे हैं और हमारे अबनाये वाहेफ़ा वही करेंगे जो हम कर रहे हैं , बेहतर होगा कि तुम हमें बाज़ रखने की कोशिश न करो और मुतावक्किल से कह दो कि वह शराब के नशे में ऐसी हरकतें न करे और अपने फ़ैसले पर नज़र सानी कर के हुक्म वापस ले ले। अमीरे फ़ौज वापस गया और उसने सारी दास्तान मुतावक्किन के सामने दोहर दी। मुतावक्किल चुंकि उन दिनों सामरा की तमकील में मशग़ूल था। इसने मन्सूर दवानक़ी की तरह तक़रीबन दस साल ख़ामोश रहा। यानी मन्सूर दवानक़ी जो तामीरे बग़दाद की वजह से दस साल तक इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की तरफ़ मुतावज्जक न हो सका। मुतावक्किल भी सामरा की वजह से तक़रीबन इतनी ही मुद्दत के लिये ख़ामोश हो गया। इमाम शिबलन्जी लिखते हैं कि सामरा एक ज़बरदस्त शहर है जो दजला के मशरिक़ मे तकरीयत और बग़दाद के दरमियान वाक़े हैं इसकी बुनियाद 221 हि. में मोतासिम अब्बासी ने डाली थी और मुद्दतों इसकी तकमील का सिलसिला जारी रहा।

(नुरूल अबसार सफ़ा 149 व तारीख़ किरमानी क़लमी)