मोमिन की मेराज
  • शीर्षक: मोमिन की मेराज
  • लेखक: आयतुल्लाह ख़ामेनई के बयान की रौशनी में
  • स्रोत:
  • रिलीज की तारीख: 16:23:19 1-10-1403

रमज़ानुल मुबारक एक अवसर है अल्लाह की तरफ़ ध्यान देने के लिये, साल के अकसर दिनों में दुनिया की चीज़ें और हमारे अन्दर की इच्छाएं हमें पनी तरफ़ खींचती रहती हैं और हम ख़ुदा को भूल जाते हैं, इसी लिये अल्लाह तआला ने रमज़ान को स्पेशल इस लिये रखा है कि इस महीने में इन्सान ख़ुदा को याद करे और अपनी आत्मा को ऊपर की तरफ़ ले जाए, ख़ुदा से क़रीब हो

सबसे अच्छा अवसर
रमज़ानुल मुबारक एक अवसर है अल्लाह की तरफ़ ध्यान देने के लिये, साल के अकसर दिनों में दुनिया की चीज़ें और हमारे अन्दर की इच्छाएं हमें पनी तरफ़ खींचती रहती हैं और हम ख़ुदा को भूल जाते हैं, इसी लिये अल्लाह तआला ने रमज़ान को स्पेशल इस लिये रखा है कि इस महीने में इन्सान ख़ुदा को याद करे और अपनी आत्मा को ऊपर की तरफ़ ले जाए, ख़ुदा से क़रीब हो, अल्लाह वाला बने, उसका रास्ता अपनाए और अपने अन्दर ख़ुदाई रंग ढ़ंग लाने की कोशिश करे, इससे अच्छा अवसर नहीं मिल सकता।
हालांकि रमज़ानुल मुबारक के अलावा और भी मौक़े हैं जैसे यही पाँच टाइम की नमाज़ें भी एक अवसर है जिसमें इन्सान ख़ुदा के साथ अपनी आत्मा के तार जोड़ सकता है, रूह पर लगे धब्बों को धो सकता है, अपने अन्दर की बीमारियों का इलाज कर सकता है, अगर नमाज़ में हमारा ध्यान अल्लाह की तरफ़ हो तो यह काम आसानी के साथ हो सकता है, इस ध्यान का एक तरीक़ा यह है कि जो कुछ हम नमाज़ में पढ़ते हैं उसकी तरफ़ ध्यान दें और सोचें कि हम क्या कह रहे हैं, अब कोई यह न कहे कि मुझे तो अरबी नहीं आती, मैं तो उर्दू, हिन्दी या दूसरी भाषा समझता हूँ, अगर नहीं आती तो सीखना चाहिये, यह बड़ी बात नहीं है अगर इन्सान कोशिश करे तो कुछ घण्टों का काम है। हम नमाज़ में जो कुछ पढ़ते हैं उसका सीधा सा अनुवाद हम बड़ी आसानी से सीख सकते हैं। अगर हम इतना भी न कर सकें तो कम से कम इतना ध्यान में रखना चाहिये कि अब हम ख़ुदा के सामने खड़े हो गए हैं, सूरा पढ़ते हुए हम ख़ुदा के साथ बात कर रहे हैं, रुकू में हम ख़ुदा के साथ बात कर रहे हैं, सजदे में हम ख़ुदा के साथ बात कर रहे हैं, इतना ध्यान भी काफ़ी महत्व रखता है। इन नमाज़ों में (रमज़ान के महीने में) ख़ास तौर पर इस चीज़ का ध्यान रखें। अगर इस तरह की नमाज़ पढ़ी जाए तो यह मोमिन की मेराज बन जाएगी। मेराज का क्या मतलब है? मेराज का मतलब यही है कि नमाज़ पढ़ने के बाद इन्सान के अन्दर बदलाव आए, उसका दिल पहले से साफ़ हो जाए और उसके अन्दर एक रौशनी पैदा हो।
एक अनोखा टाईम
यह इबादतें और यह दिन हमारे लिये बहुत अच्छा अवसर हैं लेकिन रमज़ान का मुबारक महीना सबसे अच्छा अवसर है, यह पूरे साल में एक अनोखा टाईम है, इन दिनों पाँच वक़्त की नमाज़ों, नाफ़ेला नमाज़ों के अलावा कुछ ऐसी दुआएं पढ़ना भी मुस्तहेब हैं जो दुआएं इन्सान का ध्यान ख़ुदा की तरफ़ मोड़ती हैं, उसका ज्ञान और ध्यान ज़्यादा हो जाता है और उसकी आत्मा ख़ुदा से ज़्यादा क़रीब हो जाती है। इन दुआओं के द्वारा हमें ख़ुदा के साथ बात करने, उसके साथ प्रार्थना करने और दुआ करने का ढ़ंग सिखाया गया है। हमें सिखाया गया है कि ख़ुदा से कैसे क्या मांगना चाहिये। यह दुआएं जो मासूम इमामों की ज़बान से निकली हैं, अगर यह न होतीं तो इन्सान नहीं समझ सकता था कि ख़ुदा से कैसे दुआ करे, कैसे मांगे और क्या मांगे।
इनके अलावा ख़ुद यही रोज़ा जो इस महीने में हर मुसलमान पर वाजिब है, रोज़ा रखने वाले की सहायता है। इस महीने की बरकतों से फ़ायदा उठाने में और इन्सान को उन चीज़ों को हासिल करने के लिये तैयार करता है जिनके ज़रिये उसकी आत्मा को आरोहन मिलता है। क़ुरआने करीम जो इस मुबारक महीने में नाज़िल हुआ है और इसे क़ुरआन की बहार का महीना कहा जाता है, इसे पढ़ना और इसे समझना भी इस महीने की एक बरकत है। समेट कर कहा जाए तो इस तरह कहा जा सकता है कि इस महीने में इन्सान को नमाज़ों, रोज़ों, दुआओं, मुनाजात, क़ुरआन की तिलावत, अल्लाह के लिये दूसरों की मदद करने और इस तरह के दूसरे काम करने का सबसे अच्छा अवसर मिलता है इसलिये इन्सान उससे फ़ायदा उठाकर, दिल पर लगे गुनाहों के धब्बे धो सकता है, उसके और ख़ुदा के बीच रुकावट बनने वाली चीज़ों को हटा सकता है। अगर एक जुमले में कहा जाए तो इस तरह कह सकते हैं कि इस महीने में इन्सान ख़ुदा की तरफ़ अपना सफ़र शुरू कर सकता है।
कुछ बदलाव होना चाहिये
मैं रमज़ानुल मुबारक ख़त्म होने के बाद कभी कभी इमाम ख़ुमैनी के पास जाया करता था, उन्हें देखकर मुझे लगता था कि वह पहले से ज़्यादा नूरानी हो गए हैं, मुझे अच्छी तरह समझ में आता था कि रमज़ान से पहले और रमज़ान के बाद उनकी बातों, उनके फ़ैसलों और उनके उपदेशों में काफ़ी अन्तर आ गया है। एक मोमिन के लिये रमज़ान ऐसा ही होता है और होना चाहिये। यानी रमज़ान के बाद उसकी ज़िन्दगी में इतना बदलाव आना चाहिये कि उसकी सोच, उसकी बातें और उसके काम पहले से अच्छे हो। इस मौक़े को हमें यूँ ही नहीं गंवाना चाहिये।
गुनाहों से दूरी
ख़ुदा से क़रीब होने में सबसे बड़ी रुकावट गुनाह है, उस तक पहुँचने के लिये गुनाहों को छोड़ना ज़रूरी है। दुआएं, मुस्तहेब नमाज़ें और इस तरह दूसरी चीज़ों का फ़ायदा उसी वक़्त है जब इन्सान गुनाह न करे, उसके लिये तक़वे व सदाचार की ज़रूरत है। अगर तक़वा नहीं होगा, अगर दिल में ख़ुदा का डर नहीं होगा तो इन्सान गुनाह से दूर नहीं हो सकता। गुनाह इन्सान को कुछ नहीं करने देता, इन्सान से सब कुछ छीन लेता है, तौबा की तौफ़ीक़, अल्लाह की रहमत के समन्दर तक पहुँचने की तौफ़ीक़, साफ़ दिल से दुआ और नमाज़ की तौप़ीक़। गुनाह हमें यह सोचने का अवसर भी नहीं देता है कि हमें ख़ुद को बदलना है, हमें दिल को साफ़ करना है, हमें अपनी आत्मा को पाक करना है। इसलिये सबसे पहले गुनाहों से दूर होना ज़रूरी है।
गुनाह भी कई प्रकार के हैं। कुछ गुनाहों का सम्बंध इन्सान के निजी जीवन से है और कुछ का सम्बंध समाज से है। कुछ गुनाह ज़बान के, कुछ हाथ के, कुछ आँखों के, कुछ दिल के और इसी तरह दूसरी चीज़ों के गुनाह होते हैं। एक मुसलमान को मालूम होना चाहिये कि कौन सी चीज़ें गुनाह हैं और फिर उनसे दूर होना चाहिये। अगर कोई मुसलमान दुआएं पढ़ता रहे, मुस्तहेब काम करता रहे, अपनी दीनी ज़िम्मेदारियां अन्जाम देता रहे लेकिन गुनाहों से दूर न हो, वह उस इन्सान जैसा है जिसे सख़्त बुख़ार या नज़ला हो और वह उसके लिये बहुत अच्छी दवाइयां भी ले रहा हो लेकिन साथ ही वह चीज़ें भी खा रहा हो जिनसे नज़ला बढ़ता है, ऐसे इन्सान को दवाइयों का कोई फ़ायदा नहीं होगा। एक बीमार उसी वक़्त ठीक हो सकता है वह सही दवाइयां लेने के साथ उन चीज़ों से भी परहेज़ करे जो उसकी बीमारी के लिये ख़तरनाक हैं।
अल्लाह की रहमत, उसकी मग़फ़ेरत (गुनाहों को माफ़ करना) और नेमतों का सही फ़ायदा उसी वक़्त उठाया जा सकता है जब इन्सान ख़ुद को इसके लिये तैयार करे और यह तैयारी इस तरह होगी कि इन्सान गुनाहों से दूर हो। हम दुआए कुमैल में पढ़ते हैं-
’’اَللّهُمَّ اغفِر لِىَ الذُّنُوبَ الَّتِى تَحبِسُ الدُّعَاءَ‘‘
ख़ुदाया उन गुनाहों को माफ़ कर दे जिनकी वजह से दुआएं क़ुबूल नहीं होतीं। इसका मतलब है कि गुनाह एक रुकावट है। इस महीने की सहरी में पढ़ी जाने वाली दुआए अबू हमज़ा सुमाली में इमामे ज़ैनुल आबेदीन अ. फ़रमाते हैं-
’’فَرِّق بَینى وَ بَینَ ذَنبِى المَانِعِ لِى مِن لُزُومِ طَاعَتِكَ‘‘
ख़ुदाया मेरे और गुनाहों के बीच फ़ासला डाल दे, क्योंकि यह गुनाह इस बात का कारण बनते हैं कि मैं अपनी ज़िम्मेदारी न निभाऊँ और तुझ तक न पहुँच सकूँ। इस लिये सबसे पहले गुनाहों से दूरी ज़रूरी है।