मुक़द्दमा :
तारीख़ यानी सरगुज़श्त, फ़र्दी व इज्तेमाई सरगुज़श्त, क़ौमी व क़बाईली सरगुज़श्त, तल्ख़ व शीरी सरगुज़श्त, एक ऐसी सरगुज़श्त जिसका हर पेच व ख़म अस्रे हाज़िर की नस्लों को अपनी तरफ़ दावत दे रहा है कि आओ मेरे सुनहरे औराक़ की वरक़ गरदानी करो, मुझमें ग़ौर व फ़िक्र करो! मैं तुम्हारे लिये मकनूनात व मसतूरात को हुवैदा कर दूगा जिसके ज़रिये तुम बातिल और उसकी हीला गरी से वाक़िफ़ हो जाओगे और हक़ और उसके हुस्न व जमाल से आशना।
अब न तुम्हे कोई ना तजरुबेकार के लक़ब से मुलक़्कब करेगा, न ही तुम्हारे इस्तेहसाल की कोशिश करेगा मगर मेरा दामने इबरत इतना वसी है कि तुम्हारी ज़िन्दगी के हर मोड़ पर इस तरह साया फ़िगन रहेगा कि ज़लालत व गुमराही की धूप तुम्हे छू भी न पायगी। अगर तुमने मेरे दामने इबरत का अपने सरों पर शामियाना बना लिया तो इस्तेकबारी निज़ाम और सामराजी ताक़तें तुम्हारे मुक़ाबिल तिफ़्ले मकतब नज़र आयेगी। हदफ़े हयात मोअय्यन और राहे हिदायत हमवार हो जायगी। मैं तुम्हे सआदत की शाहराह पर गामज़न कर सकती हूँ।
तुम मुझे अपना उस्ताद बना लो, मेरी बातों को धयान से सुनो और उस पर अमल पैरा हो जाओ जैसे जैसे तुम मेरी गुफ़तार पर अमल करोगे वैसे वैसे अपने कमाल की मंज़िल से नज़दीक होते जाओगे और एक वाक़ई और हक़ीक़ी इंसान बनते जाओगे और अगर तुम्हे इस बात पर यक़ीन न हो तो क़ल्बे ख़तमी मर्तबर (स) पर नाज़िल होने वाली किताब से पूछ लो! तुम जब उससे मेरी बातों की तसदीक़ चाहोगे तो वह जवाब देगी: हाँ हाँ! तारीख़ का कहना बिल्कुल सही है वह तुम्हारे कमाल व तकामुल में दख़ालत रखती है इसी लिये तो मेरे अंदर एक सिव्वुम तारीख़ पाई जाती है। यही नही, ख़ुदावंदे मोमिनान ने मेरे अंदर ऐसी आयतों को क़रार दिया है जो सीधे तौर से इंसानों को हुक्म दे रही हैं कि तारीख़ से इबरत हासिल करो, मिसाल के तौर पर क़िस्स ए हज़रत यूसुफ़ के बयान के बाद इरशाद होता है :(..........................................) (1) और ''ब तहक़ीक़ उनके क़िस्सों में अक़लमंदों के लिये इबरत है''
इसी तरह सूरह ए आले इमरान में जंगे बद्र में कुफ़्फ़ार के कसीर लश्कर की शिकस्त और मुसलमानो की क़लील तादाद की फ़तह व ज़फ़र का तज़किरा करने के बाद इरशाद होता है (......................................) (2) ''और इसमें साहिबाने नज़र के वास्ते सामाने इबरत व नसीहत है '' सूर ए मोमिन में हज़रत मूसा और फ़िरऔन के तज़किरे के बाद इरशाद होता है :(...........................................) (3) ''क्या इन लोगों ने ज़मीन में सैर नही की है ताकि देखते कि उनसे पहले वालो का अंजाम क्या हुआ जो उनके मुक़ाबले में अकसरियत में थे और ज़्यादा ताक़तवर भी थे और ज़मीन में आसार के मालिक भी थे लेकिन जो कुछ भी कमाया था कुछ काम न आया और मुब्तिलाए अज़ाब हो गये।''
इसी तरह दीगर मक़ामात पर भी क़ुरआने मजीद इंसानो को तारीख़ में ग़ौर व फ़िक्र और उससे इबरत हासिल करने की तरफ़ दावत दे रहा है। इंसान और क़ुरआन की बाहमी गुफ़्तुगू जिसका नतीजा ये हुआ कि तारीख़ से इबरत ज़रूर हासिल करना चाहिये, लेकिन ये इबरत है क्या?
इबरत के मअना
इबरत हासिल करना यानी माज़ी के तल्ख़ व शीरीं हवादिस व वाक़ियात को मुस्तक़बिल का आइना क़रार देना। इबरत हासिल करना यानी माज़ी को मुस्तक़बिल के लिये मशअले राह बनाना। इबरत हासिल करना यानी माज़ी को एक दर्स के उनवान से देखना। इबरत हासिल करना यानी माज़ी के मुर्दा वाक़िआत को असरे हाज़िर में भी ज़िन्दा समझना। अरबी ज़बान में इबरत ''उबूर'' से लिया गया है । जिसके मअना हैं ''किसी चीज़ से गुज़रना'' इसी लिये आँसू को अरबी ज़बान में ''इबरह'' कहते हैं क्योंकि आँसू आँखो से उबूर करता है और इसी मुनासिबत से जो हवादिस व वाक़िआत इंसान के लिये बाइसे वाज़ व नसीहत हों उनको भी ''इबरत'' कहते है। (4)
लिहाज़ा इबरत हासिल करना यानी हाल से माज़ी की तरफ़ सफ़र करना और तहक़ीक़ व तहलील के बाद उससे नसीहत लेना, ब अल्फ़ाज़े दीगर तारीख़ का मुतालआ करने के बाद इंसान अपना और अपने मआशरे और समाज का इस तारीख़ से मुक़ायसा करे ताकि वह ख़ूबियों और बदियों को समझ सके और मौजूदा मुश्किलात के हल के लिये चारा अंदेशा कर सके।
हो जिस तारीख़ में इबरत वही तारीख़ है मतलूब
न हो तारीख़ में इबरत तो फिर तारीख़ ही क्या है
इबरत हज़रत अली (अ) की नज़र में
अक़वाले हज़रत अमीर (अ) में ऐसी नसीहतें पाई जाती हैं जिन पर अमल पैरा हो कर इंसान सआदत की मंज़िलों पर फ़ाएज़ हो सकता है। इन्ही नसीहतों का एक उनसुर इबरत हासिल करना है जो आप (अ) के गराँ बहा अक़वाल में कसरत के साथ पाया जाता है। हज़रत अमीरल मोमिनीन (अ) ने इबरत के मुख़्तलिफ़ पहलुओ पर रौशनी डाली है जिनको हम आइन्दा सुतूर में मुख़्तलिफ़ अनावीन के तहत ज़िक्र करेंगे। उनमें से बाज़ नुरानी कलेमात में इबरत के शीरीं नताएज की तरफ़ इशारा किया है जिनका ख़ुलासा ये है कि इबरत हासिल करने वाले, हवादिसे तारीख़ को पेशे नज़र रखकर ज़िन्दगी की सही राह को इंतेख़ाब करते हैं और उस दामे आफ़त व मुसीबत से महफ़ूज़ रहते हैं जिससे गुज़िश्ता क़ौम दो चार हुईं, आप (अ) फ़रमाते हैं : (.............................) (5) ''इबरत से ख़ौफ़ और नसीहत हासिल होती है'' (...................................) (6) ''इबरत हसिल करना ख़ताओं से अमान का बाइस है।'' (...............................) (7) ''जो शख़्स जितना ज़्यादा इबरत हासिल करेगा उस क़द्र ही लग़ज़िशों से महफ़ूज़ रहेगा। ''
अब इस मक़ाम पर नहजुल बलाग़ा में मौजूद हज़रते अमीरल मोमिनीन (अ) की तालीमात की रौशनी में इबरत के मुख़्तलिफ़ पहलुओं को मुख़्तलिफ़ अनावीन के तहत पेश किया जा रहा है।
तारीख़ से इबरत लेने की वजह
अगरचे बाज़ लोगों ने तारीख़ से इबरत हासिल करने को ममनूअ क़रार दिया है (8) लेकिन हम ये बयाम कर चुके हैं कि इस्लामी नुक़्त ए नज़र से इबरत काफ़ी अहमियत की हामिल है।
हज़रत अमीरल मोमिनीन (अ) हारिस हमदानी के नाम एक ख़त में इबरत हासिल करने का वजह और उसके सबब को बयान करते हुए फ़रमाते हैं: (.................................) (9) ''दुनिया के माज़ी से उसके मुस्तक़बिल के लिये इबरत हासिल करो क्योकि उसका एक हिस्सा दूसरे से मुशाबेहत रखता है और आख़िर अव्वल से मुलहक़ होने वाला है''
इस गराँ क़द्र जुम्ले से मालूम होता है कि चूँकि दुनिया के हवादिस व वाक़िआत एक दूसरे से काफ़ी हद तक मुशाबेहत रखते हैं और इंसानी समाज तारीख़ दोहराता रहता है लिहाज़ा उससे इबरत हासिल करने की ज़रूरत बिल्कुल वाज़ेह और आशकार है। एक मक़ाम पर इरशाद फ़रमाते हैं: (........................) (10) ''मैं अपने क़ौल का ख़ुद ज़िम्मेदार और उसके सही होने का ज़ामिन हूँ के जिस शख़्स पर गुज़िश्ता अक़वाम की सज़ाओं ने इबरत को वाज़ेह कर दिया हो उसे तक़वा शुबहात में दाख़िल होने से यक़ीनन रोक दोगा।''
हज़रत अमीर (अ) इस कलाम में अपनी पूरी ज़िम्मेदारी व ज़मानत का इज़हार करते हुए इबरत के फ़वाएद व आसार को बयान कर रहे हैं और आप (अ) के इस कलाम से मालूम होता है कि इबरत हासिल करने के फ़वाएद में से एक अहम फ़ायदा ये है कि उसके ज़रिये इंसान के अंदर एक तरह का तक़वा पैदा हो जाता है और वब इस तरह कि जब वह गुनाहगार क़ौमों की तारीख़ व सरगुज़श्त पर नज़र डालेगा जिन्होने ख़ुदा के सामने सरकशी इख़्तियार की औऱ फिर उनके अंजाम का मुतालआ करेगा तो ज़ाहिर है कि उसके क़ल्ब में तक़वा और ख़शियते इलाही की किरन फूट पड़ेगी लेकिन अगर उसके बर अक्स उस पर तारीख़ असर अंदाज़ न हो सकी तो इसका मतलब ये है कि वह ग़फ़लत की तारीक नगरी में हैरत व सर गरदानी का शिकार है।
आबा व अजदाद और फ़ानी दुनिया से इबरत
हज़रत अमीर (अ) इंसानो को अपने बाप दादा की सरगुज़श्त की तरफ़ मुतवज्जेह होने की सिफ़ारिश करते हुए फ़रमाते हैं: (....................................) (11) ''अगर तुम अक़्ल से काम लेते तो तुम्हारे लिये गुज़िश्ता लोगों के आसार में सामाने तंबीह नही है? क्या आबा व अजदाद की दास्तानों में बसीरत और इबरत नही? है क्या तुमने यह नही देखा कि जाने वाले पलट कर नही आते, और बाद मे आने वाले रह नही पाते।''
इमाम (अ) का ये कलाम इस बात की तरफ़ इशारा कर रहा है कि हम और हमारी नस्लों में आने वाले भी अपने आबा व अजदाद की तरह एक न एक दिन इस दुनिया से चले जाएगें। लिहाज़ा इस दुनिया से दिल लगी अच्छी बात नही, क्योंकि ये एक ऐसी ख़ुबसूरत दुल्हन की तरह है जिसने कभी किसी से वफ़ा न की और जो भी उसके हुस्न के जाल में गिरफ़्तार हुआ उसे ज़िल्लत व रुसवाई के सिवा कुछ न हासिल हुआ।
दुनिया एक आरिज़ी जगह है जहाँ हम आमाल के बीज बोने आये हैं ताकि इसकी लहलहाती हुई हरी भरी फ़स्ल से आख़िरत में बहरा मंद हों। इसी लिये हदीसे शरीफ़ में वारिद हुआ है (.............) ''दुनिया आख़िरत का खेती है।''
किसी ने क्या ख़ूब कहा है कि दुनिया और इंसान की मिसाल दर हक़ीक़त दरिया और कश्ती की मिसाल है यानी जब कश्ती दरिया के सीने पर सवार रहती है उस वक़्त तक वह सही और सालिम अपना सफ़र बरक़रार रखती है, लेकिन जब दरिया का पानी कश्ती मे दाख़िल हो जाता है तो कश्ती ग़र्क़ हो जाती है। इसी तरह इंसान जब तक इस दुनिया को अपने क़दमों तले रखता है और उसे अपने ऊपर हावी नही होने देता तो उसकी सआदत व निजात का सफ़र जारी रहता है लेकिन जब यही दुनिया इंसान के ऊपर हावी हो जाती है तो फिर इंसान ज़लालत व गुमराही के गहरे समंदर में ग़र्क़ होता नज़र आता है।
इस फ़ानी और फ़रेबी दुनिया से दूरी इख़्तियार करने की नसीहत और गुज़िश्तेगान के पुर पेच व ख़म दास्तान बयान करते हुए एक जगह हज़रत अमीरल मोमिनीन (अ) इरशाद फ़रमाते हैं: (.......................) (12) ''और इबरत हासिल करो उन मनाज़िर के ज़रिये जो तुमने ख़ुद देख लिये हैं कि गुज़िश्ता नस्लें हलाक हो गयीं, उनके जोड़ बंद अलग अलग हो गये, उनकी आँखे और उनके कान ज़ाएल हो गये, उनकी शराफ़त और इज़्ज़त चली गयी, उनकी नेमत और मसर्रत का ख़ातेमा हो गया, औलाद का क़ुर्ब फ़ोक़दान में तबदील हो गया और अज़वाज की सोहबत फ़िराक़ में बदल गयी, अब न बाहमी मुफ़ाख़िरत रह गयी और न नस्लों का सिलसिला, न मुलाक़ातें रह गयी न बातचीत।''
शैतान से इबरत !!
इबरत के मक़ामात में से एक मक़ाम बाग़ी और सरकश अफ़राद की दास्तानें हैं जिन्होंने परवरदिगारे आलम के सामने परचमे तुग़यान बुलंद किया और उस वहदहू ला शरीक के मुक़ाबले में अपनी क़द अलम करने की कोशिश की जिन्होंने चिराग़े हिदायत से मुह मोड़ लिया और तारीकी व ज़लालत के पुजारी बन गये जिसके नतीजे में उन्हे इसी दुनिया में सज़ा व आज़ाबे इलाही में गिरफ़्तार होना पड़ा। उन ताग़ूतों में सरे फ़ेहरिस्त उस शैताने ख़बीस का नाम नज़र आता है जिसने एक लम्हे में अपनी हज़ारहा बरस की इबादत व बंदगी पर पानी फेर दिया। वह भी ख़ुदा की वहदानियत का क़ाएल था, वह भी मआद व क़यामत पर ईमान रखता था, वह भी छ हज़ार साल ख़ुदा की इबादत में मशग़ूल रहा था लेकिन इन तमाम फ़ज़ीलतों के बावजूद सिर्फ़ एक तकब्बुर ने उसे रिफ़अते उबूदियत से पस्ती ए तुग़यान की तरफ़ ढकेल दिया ?।
हज़रते अमीरल मोमिनीन इस सिलसिले में इरशीद फ़रमाते हैं : (................................) (13) ''तो अब तुम परवरदिगार के इबलीस के साथ बर्ताव से इबरत हासिल करो कि उसने उसके तवील अमल और बे पनाह जद्दो जहद को बर्बाद कर दिया जबकि वह छ हज़ार साल इबादत कर चुका था, जिसके बारे में किसी को मालूम नही है कि वह दुनिया के साल थे या आख़िरत के, मगर एक साअत के तकब्बुर ने सबको मलया मेट कर दिया तो अब उसके बाद कौन ऐसी मासियत करके अज़ाबे इलाही से महफ़ूज़ रह सकता है?''
सामराजियत के अंजाम से इबरत
गुज़िश्ता उनवान के तहत बयान हुआ कि सरकश और सामराजी ताक़तों के अंजाम से भी इबरत हासिल करना बहुत ज़रूरी है इस लिये कि कितनी ही ऐसी इस्तिकबारी और सामराजी ताक़तें तारीख़ के औराक़ पर सब्त व ज़ब्त हैं जिनके बुरे अंजाम को देख कर हर दौर के मुस्तज़अफ़ीन के क़ुलूब में उम्मीद की किरने फूट पड़ती हैं और पाक व पाकीज़ा किताब क़ुरआने मजीद में भी मुस्तज़अफ़ीन से ये वादा किया गया है कि आख़िर कार ज़मीन के वारिस वही होंगे और इस्तिकबार व सामराजियत क़ब्रे तारीख़ में दफ़्न हो कर रह जायेगी (.............................) (14) ''और हम ये चाहते हैं कि जिन लोगों को ज़मीन में कमज़ोर बना दिया गया है उन पर अहसान करें और उन्हें लोगों का पेशवा बनायें और ज़मीन का वारिस क़रार दें।''
इस्तिकबारी और सामराजी ताक़तों से इबरत हासिल करने के सिलसिले में मौला ए काऍनात (अ) इरशाद फ़रमाते हैं: (........................) (15)'' देखो तुम से पहले इस्तिकबार करने वाली क़ौमों पर जो ख़ुदा का अज़ाब, हमला, क़हर और इताब नाज़िल हुआ है उससे इबरत हासिल करो, उनके रुख़सारों के बल लेटने और पहलू के बल गिरने से नसीहत हासिल करो और अल्लाह की बारगाह में तकब्बुर की पैदावार मंज़िलों से इस तरह पनाह मागो जिस तरह ज़माने के हवादिस से पनाह मागते हो।''
एक मक़ाम पर हज़रत अमीर (अ) ने नमूने के तौर पर बाज़ सरकश क़ौमो के नाम भी बयान फ़रमाएं है:(......................) (16) ''कहाँ हैं (शाम व हिजाज़) के अमालेक़ा और उनकी औलादें ? कहाँ हैं (मिस्र के) फ़िरऔन और उन की औलादें? कहाँ हैं (आज़रबाइजान के) असहाबुर रिस जिन्होंने अंबिया को क़त्ल किया, मुरसलीन की सुन्नतों को ख़ामोश किया और जब्बारों की सुन्नतों को ज़िन्दा किया। कहाँ है वह लोग जो लश्कर ले कर बढ़े और हज़ारहा हजार को शिकस्त दे दी? लश्कर के लश्कर तैयार किये और शहरों के शहर आबाद कर दिये।''
इंमाम ने ख़ुत्बे के इन तलाई जुम्लों में ऐसी मुस्तकबिर क़ौमों का तज़किरा है जिन्होंने दीन से मुक़ाबला किया। जिसके नतीजे में ख़ुदावंदे आलम ने उन्हे हलाक कर दिया। लेकिन अफ़सोस सद अफ़सोस कि असरे हाज़िर का इंसान खुली हुई निशानियों से इबरत हासिल नही करता, वह भी उन्ही क़ौमों के नक़्शे क़दम पर गामज़न है। उसे अम्बिया नही मिलते तो अम्बिया के पैरोकारों की क़त्ल व ग़ारतगरी में मसरूफ़ है, दीनी मुक़द्देसात की तौहीन उसका मशग़ला बन चुका है, सुन्नतें मआशरे से ख़त्म की जा रही हैं और बिदअतों को रिवाज बख़्शा जा रहा है, फ़िरऔनियत ने सर उढा रखा है, असहाबुर रिस की सुन्नतें ज़िन्दा हो चुकीं हैं, क़ौमे लूत की सीरत अपनाई जा रही है।
लेकिन कोई है जो सिसकती हुई इंसानियत के आँसू ख़ुश्क कर सके? कोई है जो नाला व शेवन में मुब्तला इंसानियत की सदा ए इस्तेग़ासा पर लब्बैक कह सके? क्या इस दुनिया में अब ऐसा कोई मौजूद नही जो ग़फ़लत के शिकार उन इंसानो के ख़ुफ़ता ज़मीरों को झिंझोड़ सके? क्या कोई है जो सदा ए अली (अ) को उनके कानो तक पहुचाँ सके ?!!
क्यों ये इबरत हासिल नही करता? क्यों ये इंसान नसीहतों पर अमल नही करता? ''कहा हैं सुनने वाले कान''
ये एक ऐसा सवाल है जिसका दर्द ख़ुद अमीरल मोमिनीन (अ) अपने सीन ए अक़दस में लिये इस दुनिया से रुख़्सत हो गये। आप (अ) फ़रमाते हैं:
(....................) (17) ''इबरते कितनी ज़्यादा हैं और उसके हासिल करने वाले कितने कम हैं!''
हज़रत अली (अ) की वसीयत
इबरत हासिल करने की अहमियत और क़द्र व मंज़िलत उस वक़्त बेहतर तौर पर मालूम होती है जब हम देखते हैं हज़रत अमीरल मोमिनीन (अ) ने सिफ़्फ़ीन से वापसी के मौक़े पर ''हाज़िरीन'' में अपने फ़रज़ंदे अरजुमंद हज़रते इमामे हसन के नाम एक वसीयत नामा तहरीर फ़रमाया और उसमें ताकीद फ़रमाई: (....................) (18) ''ऐ मेरे बेटे अगरचे मैने उतनी उमर नही पाई जितनी मुझसे पहले वालों की हुआ करती थी लेकिन मैंने उनके आमाल पर ग़ौर किया, उनकी बातों में फ़िक्र की है और उनके आसार में सैर व सयाहत की है, इस तरह कि गोया मैं उन्ही में से एक हो गया हूँ बल्कि उनके बारे में अपनी मालूमात की बिना पर इस तरह हो गया हूँ जैसे पहले से आख़िर तक मैं उनके साथ रहा हूँ।''
इस गराँ बहा वसीयत नामे के मुक़द्दस जुम्लों से ये वाज़ेह हो जाता है कि इबरत हासिल करने और गुज़िश्तेगान की तारीख़, उनके आसार और उनकी बातों में ग़ौर व फ़िक्र के ज़रिये इंसान अपने अंदर इतने तजरुबों को समो सकता है कि गोया वह गुज़िश्ता लोगों के साथ मुख़्तलिफ़ ज़मानों में रहा हो। इसी लिये कहा गया है कि इबरत हासिल करने से इंसान की उमर बड़ जाती है क्योंकि मुम्किन है इंसान की ज़ाहिरी उमर साठ या सत्तर साल हो लेकिन जब वह तारीख़ से इबरत हासिल कर लेता है तो उसकी हक़ीक़ी उमर में बे पनाह इज़ाफ़ा हो जाता है। वह जिस क़द्ग तारीख़ से इबरत हासिल करता है, उतना ही उमर में इज़ाफ़ा हो जाता है जिसकी वजह से उसकी हक़ीक़ी उमर ज़ाहिरी उमर के बर ख़िलाफ़ साठ सत्तर हज़ार साल हो जाती है, इस लिये कि अब वह अकेला इंसान नही रह जाता बल्कि हज़ारों साल की तारीख़ और उसमें मौजूद इंसानों के तजुरबात को अपने अंदर समो लेता है।
मुसलमाँ लेता गर इबरत
काश मुसलमान तारीख़ से इबरत लेता! काश मुसलमान क़ुरआन की इबरत आमेज़ बातों पर अमल पैरा होता! काश ये मुसलमान हज़रत अमीर (अ) की नसीहतों पर कान धरता! काश ये मुसलमान गोशे शनवा रखता! तो आलमे इस्लाम की शान व शौकत न छिनती, इस्लामी इज़्ज़त व इक़तेदार पामाल न होता, आतिशे तफ़रेक़ा मे आलमें इस्लाम न सुलगता, उनदलुस की सैकड़ों साला इस्लामी हुकूमत का तख़्ता न उलटता, मुसलमान ज़ुल्म का शिकार न होते, जिहालत उनका मुक़द्दर न बनती, पसमानदगी उनका नसीब न होती, कोई इस्लामी मुक़द्देसात की तौहीन की जुर्रत न करता, क़ुरआन न जलाये जाते, हतके रिसालत (स) न होती फ़िलिस्तीन की अवाम आज़ादी के लिये न तरसती, इराक़ की सरज़मीं पर लहू के दरिया न बहते, उम्मते मुसलेमा ताक़तवर सर बुलंद होती, मिल्लते इस्लामिया सर बुलंद जीती....... ऐ काश! ऐ काश! ये मुसलमान इबरत ले लेता।........
हुस्ने ख़िताम
''सुबहे क़रीब''
ज़माना हो गया दुश्मन कुछ ऐसा था मराम अपना
न बदला पर क़ुऊदे क़हरक़ाही अपना
तुझे ऐ अज़मे रासिख़, क़ल्बे मोहकम हो सलाम अपना
न तोड़ा आँधियो के डर से तूने इन्सिजाम अपना
हज़ारो आतिशें ख़रों भरे रस्तों को काटा है
मगर दुश्मन के हरबे डगमगा पाये न गाम अपना
मगर अफसोस इस दौरे सितम परवर के मुस्लिम पर
कि खोता जा रहा है धीरे धीरे ऐहतिराम अपना
तदय्युन भूल बैठा है नही मालूम है उसको
मुबाह व मुस्तहिब अपना हलाल अपना हराम अपना
मुसलमाँ मुत्तहिद हो गर क़सम मौलूदे काबा की
दोबारे होगा सबसे आला व अरफ़ा मक़ाम अपना
वह रोब व दबदबा और शानो शौकत होगी दुनिया में
कि U.N.O में होगा हर्फ़े आख़िर हर कलाम अपना
ये इसराईल व अमरीका को कहना होगा बाला अख़िर
चलो भागें यहाँ से अब न पेड़ अपना न आम अपना
अलैसस सुबहो की आयत ने आबिद को दिया मुजदा
कि लिखा होगा हर फ़त्ह व ज़फ़र पर सिर्फ़ नाम अपना
हवाले
1. सूर ए यूसुफ़ आयत 111
2. सूर ए आले इमरान आयत 13
3. सूर ए ग़ाफ़िर आयत 82
4. मजमउल बहरैन जिल्द 2 पेज 1165, तफ़सीरे नमूना जिल्द 23 पेज 491
5. बिहारुल अनवार जिल्द 78 पेज 92
6. फ़ेहरिस्ते ग़ुरर पेज 229
7. फ़ेहरिस्ते ग़ुरर पेज 231
8. फ़लसफ़ए तारीख़ शहीद मुतहहरी जिल्द 1 पेज 913
9.नहजुल बलाग़ा मकतूब 69
10. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 16
11. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 99
12. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 161
13. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 192
14. सूर ए क़सस आयत 5
15. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 192
16. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 182
17. नहजुल बलाग़ा हिकमत 297
18. नहजुल बलाग़ा मकतूब 31