इस्लाम वास्तव में एक संपूर्ण जीवन व्यवस्था है। व्यक्तिगत, दाम्पत्य, पारिवारिक और सामाजिक, सारे पहलू तथा इनके वैचारिक, धार्मिक आध्यात्मिक, नैतिक, भावनात्मक तथा आर्थिक और क़ानूनी एवं न्यायिक...सारे आयाम एक दूसरे से अभाज्य रूप से संबद्ध, संलग्न और इस प्रकार अन्तर्संबंधित कि जीवन के किसी एक विशेष अंग, अंश, पक्ष या आयाम को ‘समग्रता’ (Totality) से अलग करके नहीं समझा जा सकता। उपरोक्त भ्रम या आक्षेप, ‘समग्रता’ से ‘अंश’ को पृथक (Isolate) करके देखने से पैदा होते हैं। आक्षेप का एक कारण यह भी है कि ‘कुछ तत्वों’ की नीति ही इस्लाम के प्रति दुराग्रह, घृणा, विरोध और दुष्प्रचार की है।
दूसरा कारण यह भी है कि स्वयं मुस्लिम समाज में कुछ नादान व जाहिल लोग, तलाकष् के इस्लामी प्रावधान को क़ुरआन की शिक्षाओं तथा नियमों के अनुकूल इस्तेमाल नहीं करते जिससे स्त्री पर अत्याचार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उनके इस कुकृत्य से, वे ग़ैर-मुस्लिम लोग, जो नादान मुसलमानों की ग़लती का शिकार हो जाने वाली औरत से सहानुभूति रखते हैं, यह निष्कर्ष निकाल बैठते हैं कि यह ग़लती इस्लाम की है, त्रुटि इस्लामी विधान में है। और मुस्लिम समाज में पाई जाने वाले इस व्यावहारिक दोष का एक बड़ा कारक यह भी है कि हमारे देश के मुस्लिम समाज की उठान और संरचना उस ‘इस्लामी शासन व्यवस्था’ के अंतर्गत तथा उसके अधीन रहकर नहीं हो रही है (और न ही हो सकती है) जो इस्लाम के अनुयायियों के जीवन के हर क्षेत्र को पूरी व्यापक व समग्र जीवन व्यवस्था की एक पवित्र तथा न्यायपूर्ण व नैतिक लड़ी में पिरो देता है; जहां न पत्नी पर दुष्ट पति के अत्याचार की गुंजाइश रह जाती है, न उद्दंड व नाफ़रमान पत्नियों द्वारा पतियों के शोषण की गुंजाइश। (गत कई वर्षों से हमारे देश में पत्नियों के अत्याचार से पीड़ित व प्रताड़ित पतियों के संगठन काम कर रहे हैं तथा जुलाई 2009 में ऐसे संगठनों के हज़ारों सदस्यों का जमावड़ा राजधानी दिल्ली में हुआ था)।
तलाक़-अत्यंत नापसन्दीदा काम
हलाल और जायज़ (वैध) कामों में सबसे ज़्यादा नापसन्दीदा और अवांछित काम इस्लाम में तलाक़ को माना गया है। दाम्पत्य-संबंध-विच्छेद (तलाक़) को इस्लाम उस अतिशय परिस्थिति (Extreme situation) में कार्यान्वित होने देता है जब दाम्पत्य संबंध इतने ज़्यादा ख़राब हो जाएं कि दम्पत्ति, संतान, परिवार और समाज के लिए अभिशाप बन जाएं। ऐसे में इस्लाम चाहता है कि पति व पत्नी एक-दूसरे से आज़ाद होकर अपनी पसन्द का नया जीवन शुरू कर सकें। अरबी शब्द ‘तलाक़’ में इसी ‘आज़ाद होने’ का भाव निहित है। इस्लाम इस बात को गवारा नहीं करता कि पति-पत्नी में आए दिन लड़ाई-झगड़ा मार-पीट, गाली-गलौज़ का वातावरण रहे, बच्चे ख़राब हों, उनका भविष्य नष्ट हो, पति-पत्नी एक-दूसरे की हत्या करें/कराएं या आत्महत्या कर लें, पति घर छोड़कर चला जाए या पत्नी को घर से निकाल दे, परिवार अशांति व बदनामी की आग में जलता रहे लेकिन जैसा कि हमारे भारतीय समाज की दृढ़ व व्यापक परम्परा रही है, दोनों में संबंध-विच्छेद न हो। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो तलाक़ को ‘अत्याचार’ कहने वाले लोग स्वयं, इसे पति व पत्नी के लिए, विशेषतः स्त्री के लिए ‘वरदान’ और ‘न्याय’ कहेंगे कि वह एक नरक-समान जीवन जीने पर मजबूर रहने के, और पीड़ा, प्रताड़ना, अत्याचार, घुटन, कुढ़न व अशान्ति से ग्रस्त रहने के बजाय एक नया, शान्तिमय व गौरवपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए आज़ाद हो गई। और यही विकल्प पुरुष को भी प्राप्त हो गया।
दो अतियां (Extremes)
हमारे देश में, सेक्युलर क़ानून-व्यवस्था में कुछ समय पूर्व तलाक़ का प्रावधान किए जाने से परे, मूल तथा प्राचीन भारतीय सभ्यता और धार्मिक परम्परा में तलाक़ की गुंजाइश ही नहीं है। दाम्पत्य जीवन चाहे जितना असमान्य, कुण्ठित, समस्याग्रस्त हो जाए, पति-पत्नी के संबंधों में चाहे जितनी कटुता आ जाए, दोनों के लिए दाम्पत्य-संबंध अभिशाप बनकर रह जाएं यहां तक कि एक-दूसरे के प्रति अत्याचार, अपमान, अपराध की परिस्थिति भी बन जाए, संबंध-विच्छेद किसी हाल में भी नहीं हो सकता। औरत के पास, मायके से डोली उठने के बाद, ससुराल से अरथी उठने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं रहता।
दूसरी तरफ़, पाश्चात्य सभ्यता में तलाक़ देना/लेना (कोर्ट के माध्यम से) इतना सरल और इतना अधिक प्रचलित है कि ज़रा-ज़रा सी बात पर तलाक़ हो जाती है। कच्चे धागे की तरह दाम्पत्य-संबंध टूट जाते/तोड़ दिए जाते हैं। ‘सिंगिल पैरेंट फैमिली’ का अभिशाप नन्हे-नन्हे बच्चे भी झेलते हैं और समाज भी झेलता है। पति-पत्नी दाम्पत्य जीवन की गरिमा व महत्व के प्रति संवेदनहीन (Insensitive) होते जा रहे हैं। कुछ लोग तो पति-पत्नी ऐसे बदलते हैं जैसे मकान, लिबास और कारों के मॉडल।
सन्तुलित, मध्यम-मार्ग
इस्लाम, भारतीय मूल-सभ्यता और पाश्चात्य सभ्यता की उपरोक्त दो अतियों (Extremes) के बीच एक संतुलित ‘मध्यम मार्ग’ अपनाता है। न तलाक़ को वर्जित, अबाध्य, असंभव बनाता है, न खेल-खिलवाड़ की तरह आसान। विशेषतः औरत पर, उपरोक्त दोनों अतियों में जो अत्याचार और उसका जो बहुपक्षीय शोषण होता है वही आपत्तिजनक तथा आक्षेप का पात्र है, न कि इस्लाम का, तलाक़ का प्रावधान।
इस्लाम में इस बात का प्रावधान है कि पति, अत्यंत असहनीय परिस्थिति में पत्नी को तलाक़ दे सकता है और स्त्री नियमानुसार विधिवत प्रक्रिया द्वारा पति से तलाक़ प्राप्त कर सकती है। यह प्रक्रिया विस्तार के साथ शरीअत ने निश्चित व निर्धारित कर दी है। अलबत्ता स्त्री को स्वयं तलाक़ देने का अधिकार न देने में इस्लाम ने इस तथ्य का भरपूर ख़्याल रखा है कि स्त्री अपने स्वभाव, मनोवृत्ति, मानसिकता व भावुकता में पुरुष से भिन्न बनाई गई है। उसकी भावनात्मक स्थिति इतनी नाज़ुक होती है कि वह बहुत जल्द अत्यंत भावुक हो उठती है। जिस प्रतिकूल एवं कठिन व असह्य परिस्थिति में पुरुष आत्म संयम व आत्म-नियंत्रण द्वारा तलाक़ देने से रुका रहता है, संभावना रहती है कि वैसी ही परिस्थिति में स्त्री का आत्म-बल उसकी भावुकता व क्रोध से हार जाए और वह तलाक़ दे बैठे। इसे पाश्चात्य समाज ने सही भी साबित कर दिया है। अपनी पसन्द का चैनल देखने पर आग्रह करने वाली पत्नी ने अपनी पसन्द का चैनल देखने पर आग्रह करने वाले पति से रिमोट कन्ट्रोल न पाकर गु़स्से में तलाक़ ले लिया। पति के खर्राटों से रात को नींद न आने पर परेशान और क्रोधित पत्नी ने तलाक़ ले लिया। ब्वाय-फ्रेण्ड के साथ मनोरंजन करने पर पति द्वारा एतराज़ किए जाने पर पत्नी ने भावुक व क्रोधित होकर तलाक़ ले लिया। पति की किसी बात से अत्यधिक कष्ट या उसके किसी व्यवहार से अपमानित महसूस करके या किसी घरेलू झगड़े में भावुक होकर बिना बहुत दूर तक, बहुत आगे की सोचे, (पति के द्वारा तलाक़ देने की तुलना में) पत्नी द्वारा तलाक़ दे देना अधिक संभावित होता है। इसी वजह से इस्लाम स्त्री को तलाक़ लेने का अधिकार तो देता है, तलाक़ देने का अधिकार नहीं देता। तलाक़ लेने की प्रक्रिया में इस्लामी शरीअत कुछ और लोगों को भी दोनों के बीच में डालती है और विधि के अनुसार कुछ समय तक समझाने-बुझाने (Counselling) की प्रक्रिया जारी रखने के बाद यदि विश्वास हो जाता है कि संबंध विच्छेद हो जाना ही औरत के लिए भलाई व न्याय का तक़ाज़ा है तो शरीअत उसे तलाक़ दिला कर पति से आज़ाद करा देती है। इस प्रक्रिया को शरीअत की परिभाषा में ‘ख़ुलअ़’ कहा जाता है।
तलाक़शुदा औरत के प्रति सहानुभूति
तलाक़ पर एतराज़ करने का एक सकारात्मक कारक भी है कि लोग तलाक़शुदा औरत से सहानुभूति रखते हैं लेकिन चूंकि वे उसके बारे में इस्लाम की पारिवारिक तथा सामाजिक व्यवस्था को जानते नहीं, इसलिए समझते हैं कि ऐसी अबला औरत को कोई पूछने वाला, सहारा देने वाला नहीं है इसलिए तलाक़ उस पर साक्षात् अत्याचार, शोषण और अन्याय है। लेकिन सच्ची बात यह है कि इस्लाम उसे बेसहारा, अबला और दयनीय बनाकर नहीं छोड़ता, उसने उसके लिए कई प्रावधान, कई स्तरों पर किए हैं, जैसे:
(1) विवाह के समय ही इस्लाम, पत्नी को पति से स्त्री धन (मह्र) दिलाता है। इस धन पर उसके पति या ससुराली नातेदारों का ज़रा भी हक़ नहीं होता, वह स्वयं उसकी मालिक होती है, कठिन व प्रतिकूल परिस्थिति में (जैसे तलाक़ के बाद) यह धन उसका सहारा बनता है।
(2) विवाह के समय या दाम्पत्य जीवन में पति जो कुछ भी धन, गहने, सामग्री, सम्पत्ति पत्नी को देता है, तलाक़ होने पर उससे वापस नहीं ले सकता।
(3) तलाक़ के बाद स्त्री वापस अपने मायके की ज़िम्मेदारी में चली जाती है। वहां माता-पिता या भाई लोगों पर उसकी आजीविका तथा भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी लागू हो जाती है। वह बेसहारा नहीं रह जाती।
(4) मायके में पहुंचकर यदि तलाक़शुदा औरत दूसरा विवाह करना चाहे तो मायके वालों को न सिर्फ़ यह कि उसे इससे रोकने या पुनर्विवाह में रोड़े अटकाने का अधिकार नहीं बल्कि अनिवार्य रूप से उनका कर्तव्य है कि उसकी पसन्द का रिश्ता ढूंढ़ कर उसकी शादी कराएं और उसका नया घर बसा दें।
(5) औरत का उसके मृत माता-पिता के धन-सम्पत्ति में शरीअत ने निर्धारित हिस्सा रखा है। माता-पिता की छोड़ी हुई दौलत, मकान, जायदाद, फैक्ट्री, कारोबार, ज़मीन, कृषि-भूमि आदि में उसका हिस्सा क़ुरआन में सविस्तार निर्धारित कर दिया गया है (4:11,12,176)। इस निर्धारण को क़ुरआन ने ‘अल्लाह की सीमाएं’ (हुदूद-उल्लाह) कहा है जिसके अन्दर न रहने वालों को हमेशा नरक में जलने की घोर चेतावनी दी गई है (4:14)। इसी तरह भाइयों और कुछ अन्य रिश्तेदारों के धन-सम्पत्ति में भी उसे हिस्सा दिया गया है। तलाक़शुदा औरत पुनर्विवाह कर ले तब भी और न करे तब भी ये हिस्से पाने की अधिकारी बनाई गई है।
(6) सामान्यतः कोई कुंवारा व्यक्ति किसी तलाक़शुदा स्त्री से शादी नहीं करता। इन्सानी प्रकृति के रचयिता ईश्वर ने इसी बात का ख़्याल रखते हुए शरीअत में बहु-पत्नीत्व (Polygyny) की गुंजाइश रखी है ताकि तलाक़शुदा (और विधवा) औरतों को लोग दूसरी (या अतिविशिष्ट परिस्थितियों में तीसरी, चैथी) पत्नी बनाकर उनका सहारा बन जाएं।
इतने प्रावधानों के साये में ‘तलाक़’ औरत के लिए अत्याचार व अभिशाप नहीं बन पाता। हां मुस्लिम समाज में नादानी, जिहालत के कारण पाई जाने वाली कुछ कमियों के कारण से कुछ मामलों में तलाक़शुदा औरत को कुछ कठिनाइयां अवश्य पेश आती हैं लेकिन ख़ुदा का ख़ौफ़ (परलोक की सज़ा का डर), इस्लामी नैतिकता, परिवार और समाज का दबाव आदि कुछ ऐसे कारक हैं जो ऐसी औरत को सहारा, उपलब्ध कराते रहते हैं; दूसरी तरफ़ मुस्लिम समाज में क़ुरआन, हदीस, शरीअत और नैतिकता के हवालों से शिक्षा व चर्चा हमेशा जारी रहती है, समाज-सुधार-प्रयत्न बराबर होते रहते हैं। परिणामस्वरूप अज्ञान व जिहालत का स्तर निरंतर नीचे गिरता रहता है और तलाक़शुदा औरत की उस तथाकथित दुर्दशा की स्थिति मुस्लिम समाज में बनने नहीं पाती जिसका बड़े पैमाने पर दुष्प्रचार किया जाता या जिसको एक मुद्दा बनाकर रह-रहकर इस्लाम पर आक्षेप किया जाता, मुस्लिम समाज पर ‘‘तलाक़’’ के अत्याचार व अभिशाप होने का आरोप लगाया जाता, इस्लाम के प्रति घृणा का वातावरण बनाया जाता है। या सीधे-सादे देशबंधुओं में अज्ञानवश ‘तलाक़-इस्लाम-मुस्लिम समाज’ के हवाले से ग़लतफ़हमियां पाई जाने लगती है।