किशोरों के लिये स्वतन्त्रता की सीमा
किशोरों के प्राय: यह शिकायत रहती है कि माता - पिता और अन्य बड़े लोग हमारी भावनाओं एवं इच्छाओं को समझते नहीं हैं, वे अपने विचारों को हमपर थोपते हैं, कहते हैं कि वे किसी अन्य पीढ़ी के हैं और उन्हें किशोरों तथा युवाओं की आवश्यकता का ज्ञान नहीं है, वे हमारे संसार की तुलना अपने जीवन से करते हैं। अधिकांश युवाओं का विचार होता है कि जो संसार उन्होंने अपने लिए बनाया है उसमें और उनके माता - पिता तथा बड़े लोगों के संसार में बहुत दूरी है। युवा, शिक्षा व ज्ञान की दृष्टि से अपने माता- पिता की शिक्षा को स्वीकार नहीं करते क्योंकि अधिकांश मामलों में युवा अपने ज्ञान को आधुनिक और अपने माता - पिता के ज्ञान से श्रेष्ठ समझते हैं और यह ऐसी स्थिति में है कि बड़े लोग अपने बच्चों के व्यवहार तथा विचारों को स्वीकार नहीं करते।
आज कल जब भी परिवार में वार्ताएं होती हैं तो माता- पिता अपने युवाओं के व्यवहार से अप्रसन्न मिलते हैं और कहते हैं कि वे उद्दण्ड हो गए हैं, छोटे , बड़ों का आदर ही नहीं करते, वो सोचते हैं कि जो वो सोचते हैं वही ठीक है , परन्तु जब उनको जीवन की वास्तविकताओं का सामना करना पड़ता है तब समझते हैं कि आज कल के जीवन का बोझ कमर तोड़ देता है। समझते हैं कि कम्प्यूटर और इन्टर नेट चलाना क्या सीख गए जीवन को भी पहचान गए हैं परन्तु अच्छे - बुरे में अन्तर तक नहीं पहचान पाते हैं।
अलबत्ता किशोर अब वो छोटा सा बच्चा नहीं है कि जो माता - पिता के आदेशों का पालन करता रहे और अपनी बुद्दि से काम न लें परन्तु यह इस अर्थ में नहीं है कि उसे हर कार्य के लिए खुली छूट दे दी जाए क्योंकि यह भी एक प्रकार से गुमराही का स्रोत है और इससे सिवाए पश्चाताप के और कुछ हाथ नहीं आता।
अब हम यह देखेंगे कि स्वतन्त्रता और सीमाओं में क्या अन्तर है? एक ऐसे परिवार के बारे में सोचें कि जो इस भय से कि कहीं उसके बच्चे बिगड़ न जाएं, उनसे हर प्रकार के प्रयोग की संभावनाएं छीन लेते हैं और एक किशोर से बिल्कुल एक छोटे बच्चे की भांति व्यवहार करते हैं, इस प्रकार वस्तुत: वो उससे उसका आत्म विश्वास छीन लेते हैं। ऐसे माता - पिता बच्चों के सही प्रशिक्षण के स्थान पर एक अच्छे जेलर की भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार की सीमाओं में पले बढ़े बच्चे बड़े होकर समाज में अपना स्थान नहीं बना पाते और विफल रहते हैं। क्योंकि जीवन में उन्होंने केवल निर्मर रहना ही सीखा है। वो समझते हैं कि निणर्य लेने की क्षमता उनमें नहीं है और सदैव किसी सहारे और संरक्षक की खोज में रहते हैं।
इसके विपरित कुछ माता- पिता आधुनिकता के नाम पर अपने युवाओं को सीमा से अधिक स्वतन्त्रता दे देते हैं। कुछ माता - पिता बच्चों को अनुभव प्राप्त करने तथा स्वतन्त्रता के बहाने खुली छूट दे देते हैं ताकि अच्छे व बुरे हर प्रकार के अनुभव प्राप्त कर सकें। प्रशिक्षण की यह शौली भी ग़लत, अतार्किक और सन्तुलन से दूर है। क्योंकि स्वतन्त्रता जब भी बिना किसी सीमा के दी जाती है तो उसका सन्तुलन दूट जाता है। किशोरों के बारे में अत्यधिक स्तर्क रहना चाहिए ताकि उसकी सीमाएं बहुत ही स्पष्ट रूप से उसे ज्ञात हों, वो समझ सके और यह ज्ञान ले कि इन सीमाओं से बाहर निकलना न केवल यह कि उसकी कोई सहायता नहीं करेगा बल्कि उसके लिए अत्यन्त हानिकारक भी है। क्योंकि किशोर यधपि अब छोटा सा बच्चा नहीं है कि निरन्तर आदेशों का पालन करता रहे, परन्तु चूंकि अभी उसके पास आवश्यक अनुभव नहीं हैं, अपने निणर्यों में वो अपनी भावनाओं तथा उत्तेजनाओं से प्रेरित होता है और कभी कभी जीवन में ऐसे निर्णय ले लेता है जिसकी क्षति पूर्ति करना असम्भव होती है।
युवाओं के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रखना चाहिए।
आयु का यह काल कुछ विशेष चारित्रिक विशेषताओं जैसे जल्दी दूसरों की बातों में आ जाना, भावनात्मक होना, तीव्र और कभी कभी अनुचित उत्तेजनाओं वाला होता है।
युवा बड़ी जल्दी दूसरों से प्रभावित हो जाता है और अपने कम अनुभव के कारण दूसरों के विचारों को बड़ी ही सरलता से स्वीकार कर लेता है। जीवन की समस्याएं और प्रतिदिन की कठिनाइयॉं बच्चों को उनके हाल पर छोड़ देने का उचित बहाना नहीं हैं। क्योंकि इस प्रकार उनके ग़लत मार्ग पर चल पड़ने की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है। क्योंकि कुछ लोग देखने में तो बड़े भोले भाले लगते हैं परन्तु अन्दर से अत्यन्त भ्रष्ट होते हैं।
बारम्बार हमने समाज में ऐसी घटनाएं घटित होते देखी हैं। अत्यन्त सुशील व शिष्ट युवा बुरी संगत में पड़ कर भ्रष्टता के मार्ग पर चल पड़े और पतन के गढ़े में जा गिरे। इस प्रकार हमने देखा कि युवाओं के लिए कुछ सीमाएं निर्धारित करना एक अत्यन्य आवश्यक कार्य है।
अब हम देखेंगे कि बच्चों के लिए कुछ नियम बनाए जाने का प्रभाव क्या पड़ता है? हम माता- पिताओं को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारी सन्तान अब कोई छोटा सा बच्चा नहीं है और बार बार " यह करो - यह न करो " कहने का उसपर नकारत्मक प्रभाव पड़ेगा। हम हर बात के लिए उसे टोक नहीं सकते , परन्तु कुछ नियम और सीमाएं अवश्य होनी चाहिए ताकि युवा का शरीर, आत्मा तथा आचरण स्वस्थ और अच्छा रहे। घर का वातावरण शन्तिपूर्ण होना चाहिए जिसमें युवा को शन्ति व सुरक्षा का आभास हो। माता - पिता का व्यवहार उसके साथ मित्रों जैसा हो, जिनमें अपने मन की बात बताने में युवा को कोई संकोच न हो।
इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर लड़के और लड़कियों के बीच अनैतिक संबंधों की भत्सर्ना की गई है और इसपर रोक लगाने का आदेश दिया गया है।
हम बड़ों के लिए इसके कारण भी पूर्णस्प से स्पष्ट हैं। अब यदि कोई युवा इन महत्वपूर्ण नियमों का पालन न करे, या मादक पदार्थों के सेवन जैसे अनुभव प्राप्त करना चाहे तो क्या आप उसे इस बात की अनुमति देंगे? स्वाभविक है कि बहुत सारे नैतिक, चारित्रिक तथा सामाजिक मामलों में युवा के सम्मुख टृढ़ता से खड़े हो जाना चाहिए। यह भी अत्यन्त आवश्यक है कि स्वतन्त्रता की सीमाएं हमें स्वंय ज्ञात हों ताकि अपने युवा के लिए उसे निर्धारित कर सकें।
आज के युवा को सांस्कृतिक तथा चारित्रिक अतिक्रमणों का सामना है। हमें सीमाओं का निर्धारण करके, सांस्कृतिक तूफ़ान को रोकने के लिए परिवार में वातावरण का बॉंध बनाना चाहिए अपने लिए अपने बच्चों और अन्तत: एक स्वस्थ समाज के लिए यह समय की एक आवश्यकता है।