मुक़द्दमा
जिस तरह मुख़्तलिफ़ अवामिल के तहते तासीर होने से एक इंसान के मुनहरिफ़ होने का ख़तरा होता है उसी तरह मुतअद्दिद अवामिल के तहत मुख़्तलिफ़ औक़ात में एक समाज और एक क़ौम के मुनहरिफ़ होने का ख़तरा भी लाहक़ होता है। जिस तरह एक क़ौम और मिल्लत की कामयाबी की वुजूहात मुख़तलिफ़ होती हैं उसी तरह से उसके ज़वाल के असबाब भी मुख़्तलिफ़ और मुतअद्दिद होते हैं।
नहजुल बलाग़ा ने जहाँ एक क़ौम, मिल्लत और मआशरे की कामयाबी के असबाब की तरफ़ इशारा किया है वही इसके ज़वाल और इन्हेतात की तरफ़ भी मुख़तलिफ़ मक़ामात पर इशारा किया है। इस मुख़तसर से मक़ाले में इतनी गुंजाइश नही है कि हम इस मौज़ू को दोनो ज़ाविये से मौरिदे मुतालआ क़रार दें लिहाज़ा सिर्फ़ क़ौमों के ज़वाल और इन्हेतात के अवामिल की तरफ़ इशारा करेगें और कोशिश यही रहेगी कि अहम असबाब और अवामिल की तरफ़ इशारा किया जाये।
एक मिल्लत और क़ौम जो मुख़्तलिफ़ अफ़राद से वुजूद में आती है, ख़ास शराएत और अवामिल के बुनियाद पर और इजतिमाई हालात और वाक़ेआत की वजह से ज़वाल पज़ीर भी होती है अमीर अल मोमिनीन के क़ौल के मुताबिक़ ऐसा माहौल पैदा हो जाता है कि जिसमें उफ़ुक़ तारीक और राहें अजनबी हो जाती हैं। लोगों के बदन एक दूसरे के नज़दीक होते हैं लेकिन उनकी ख़्वाहिशें एक जैसी नही होतीं। ऐसे माहौल में लोग दुनिया की मस्ती और ख़ुशी में अपने आप से बेगाना हो जाते हैं सुखने हक़ के दरवाज़े उन पर बंद हो जाते हैं। लिहाज़ा सरगरदानी में मुबतिला हो जाते हैं गोया उनके दिल ऐसी आफ़त में मुबतिला होते हैं कि जिसमें सोचने औऱ फ़िक्र करने की सलाहियत ख़त्म हो जाती है। न ही पुर असरार महफ़िलों में हमराज़ पैदा किया जा सकता है और न ही समाज की तन्ज़ीम के लिये मुख़्तलिफ़ क़ुदरतें पैदा होती हैं। ऐसे माहौल में बहरे कान वाले, गूगीं ज़बान वाले और अंधी आँखे रखने वाले पैदा होते हैं कि न ही उनकी रफ़तार में सदाक़त पाई जाती है और न भाईयों के मुसीबत के वक़्त मौरिदे ऐतेमाद होते हैं''। (1)
हम इन असबाब व अवामिल को दो हिस्सों में तक़सीम कर सकते हैं और फिर एक एक करके उनकी तरफ़ इशारा करेगें। ये अवामिल या सियासी हैं या फिर सक़ाफ़ती।
1: सियासी असबाब
नहजुल बलाग़ा की रौशनी में
वह सियासी अवामिल और असबाब जो क़ौमों के ज़वाल, इन्हेतात और इंहेलाल का बाइस बनते हैं वह इस तरह से हैं:
1. सालेह क़यादत का फ़ोक़दान: किसी भी क़ौम या मिल्लत की पेशरफ़्त और तरक़्क़ी के लिये एक सालेह क़ाएद और रहबर का होना बेहद ज़रूरी है अगर क़ाएद सालेह और लाएक़ न हो तो उस क़ौम के ज़वाल के अय्याम शुरू हो जाते हैं ये एक नाक़ाबिले इंकार हक़ीक़त है जिसकी तरफ़ इमामे अली (अ) भी वाज़ेह तौर पर इशारा करते हैं: ''बेशक आप जानते हैं कि एक रहबर और क़ाएद के शान के खिलाफ़ है कि वह मुसलमानो की नामूस, जान, ग़नीमत, अहकाम और इमामत में बख़ील हो और उनकी सरवत में हरीस हो लिहाज़ा जाहिल कभी भी क़यादत का अहल नही हो सकता क्योकि वह अपनी जिहालत से क़ौम को गुमराह करेगा और ज़ालिम भी लोगों का क़ाइद नही हो सकता है क्योकि वह ज़ुल्म से लोगों के हक़ को ग़स्ब करेगा और उनके अताया को काट देगा। जो आदिल न हो वह भी इस मक़ाम के लाइक़ नही है क्योकि वह एक गिरोह को दूसरे गिरोह पर तरजीह देगा। रिश्वत लेने वाला भी क़ाज़ी की हैसियत से रहबर नही बन सकता क्योकि वह क़ज़ावत के सिलसिले में रिश्वत लेकर लोगों के हुक़ूक़ को पामाल करेगा और जिसने हज़रत रसूल (स) की सुन्नत को ज़ाया किया हो वह भी क़यादत का हक़ नही रखता क्योकि वह उम्मते इस्लामी को हलाकत में डाल देगा।'' (2)
आप इन मुख़्तसर अल्फ़ाज़ में यही बयान करना चाहते हैं कि एक ग़ैरे सालेह और ग़ैरे लाएक़ क़ाइद की पहचान ये है कि वह बख़ील, ज़ालिम, रिश्वत खोर, रसूल (स) की सुन्नत को ज़ाया करने वाला और ना इंसाफ़ होता है।
2. इख़्तेलाफ़ व तफ़रेक़ा: किसी भी क़ौम व मिल्लत की तरक़्क़ी उसके अफ़राद के दरमियान इत्तेहाद व येकजहती और भाई चारे ही के ज़रिये मुम्किन है। जब तक लोगों के माबैन इत्तेहाद व येकजहती क़ाएम रहे क़ौम भी सालिम रहती है लेकिन जैसे ही ये इत्तेहाद औऱ भाईचारा ख़त्म होता है क़ौम की तबाही के दिन शुरू हो जाते हैं। दुनिया में इसतेमारी ताक़तों का सबसे बड़ा हथियार क़ौमों के दरमियान इख़्तिलाफ़ ईजाद करना है। वह किसी भी क़ौम की सालेमीयत को ख़त्म करने और उसकी कामयाबी के रास्तों को रोकने के लिये सबसे पहले उसे आपस में लड़ाते हैं। इमामे अली (अ) भी इसी तफ़रेक़े और इख़्तिलाफ़ को क़ौम की नाबूदी का एक सबसे बड़ा आमिल समझते हैं आप (अ) फ़रमाते हैं: ''हर उस काम से परहेज़ करो जिसने गुज़िश्ता उम्मतों की रीढ़ की हड्डी को तोड़ दिया है। उनके कामों के अंजाम पर ग़ौर करो जब उनमें तफ़रेक़ा ईजाद हुआ, एक दूसरे से उलफ़त व इत्तेहाद ख़त्म हो गया और उनके दिल एक दूसरे से दूर हो गये और इख़्तिलाफ़ ने उन्हे मुतअद्दिद शाख़ो में बाँट कर एक दूसरे के सामने लाकर खड़ा किया तो खुदावंदे आलम ने करामत के लिबास को उनसे छीन लिया और बहुत सी नेमतों को उनसे सलब कर लिया और सिर्फ़ उनका क़िस्सा तुम्हारे दरमियान बाक़ी रखा ताकि इबरत लेने वाले उससे इबरत हासिल करें''। (3)
इमाम अली (अ) इत्तेहाद की अहमियत बयान करते हुए उसे रीढ़ की हड्डी से तशबीह फ़रमाते हैं ख़ुतब ए क़ासेआ का बुनियादी महवर इत्तेहाद और इख़्तिलाफ़ है कि जिस पर एक क़ौम और मआशरे की कामयाबी और ज़वाल का दारोमदार होता है। एक अहम नुक्ता जो इस ख़ुतबे में क़ाबिले तबज्जोह है वह ये है कि तफ़रेक़ा और इख़्तिलाफ़ का ताअल्लुक़ इस्तिकबार से है, सही मअनों में इत्तेहाद उसी वक़्त मुम्किन है जब एक क़ौम और एक मआशरे का क़ाइद व रहबर, इस्तिकबार, ख़ुद महवरी और अनानियत से पाक हो लोगों से दोस्ताना ताल्लुक़ात रखे और ख़िदमते ख़ल्क़ के अलावा कोई दूसरा हदफ़ उसकी नज़र में न हो, जिस क़ौम का रहबर ऐसा हो तो सारे ज़ाती, सिन्फ़ी और तबक़ाती अहदाफ़ (जो कि सारे इख़्तिलाफ की जड़ है) भी इलाही अहदाफ़ में बदल जायेगें और अगर ऐसा न हो तो इस्तिकबार इसी तरह हमेशा नये नये इख़्तिलाफ़ को जन्म देता रहेगा। (4)
3. सिराते मुस्तक़ीम से इन्हेराफ़: सही और सीधा रास्ता सिर्फ़ अंबिया (अ) के वसीले से क़ौम और मिल्लत के लिये मुशख़्ख़स हुआ है जो भी क़ौम उस मुस्तक़ीम राह पर गामज़न रही उसने कभी भी शिकस्त का सामना नही किया।
इमाम अली (अ) भी ताकीद करते हैं कि इस राह से मुनहरिफ़ नही होना चाहिये। आप (अ) फ़रमाते हैं: ''दायें बायें गुमराही है बीच वाली राह मुस्तक़ीम और सीधी है। क़ुरआन व रिवायात इस बात की ताईद करते हैं। ये सुन्नते रसूल (स) की गुज़रगाह है और आख़िरकार सबको इसी तरफ़ आना है'' (5)
इसका मतलब ये हुआ कि चूँकि ये रास्ता अंबिया का रास्ता है इसीलिये इस रास्ते पर चलने से इंसान न तो कभी गुमराह हो सकता है और न ही शिकस्त से दोचार हो सकता है और जिस क़ौम के अफ़राद इस रास्ते का इंतेख़ाब करेगें वह हमेशा सर बुलंद रहेगें और कभी भी नाबूद नही होगें।
4.डिक्टेटर शिप Dictatership: अगर एक फ़र्द हाकिम बने और ये कहे कि मैं ही सब कुछ हूँ, सबको मेरी इताअत करना चाहिये तो उसे डिक्टेटर शिप Dictatership कहते हैं ये हमेशा इस्तिबदाद और इसतेमार के हमराह होती है इसी लिये इमाम अली (अ) अपनी हुकूमत के दौरान अपने तमाम गवर्नरों को इस बात का हुक्म देते हैं कि देखो मन मानी से काम नही लेना। आप (अ) फ़रमाते हैं: ''लोगों से मत कहो कि मुझे चूँकि हुक्म दिया गया है लिहाज़ा मैं भी हुक्म ही दूँगा पस मेरी इताअत लाज़िम है ऐसा तक़ब्बुर दिल को फ़ासिद और दीन को मुरझा देता है और नेमत के ज़ाएल होने का सबब बनता है।'' (6)
नहजुल बलाग़ा के असरे हाज़िर के मारूफ़ मुतर्जिम और शारेह मरहूम मोहम्मद दशती इस बारे में फ़रमाते हैं: ये जुमला ''Absolutism'' (इसतेबदादी हुकूमत) की नफ़ी करता है। (7)
यही वह असबाब व अवामिल हैं जिनकी वजह से एक क़ौम नाबूद हो सकती है
तारीख़ का मुतालआ करने से भी यही हाथ आता है कि एक क़ौम औऱ मिल्लत के ज़वाल और इन्हेतात में मज़कूरा अवामिल सबसे अहम और मोअस्सिर अवामिल साबित होते हैं और आज के दौर में भी अगर देखा जाये तो सियासी ऐतेबार से क़ौमों के ज़वाल के असबाब में मज़कूरा अवामिल सरे फ़ेहरिस्त हैं।
2. सक़ाफ़ती अवामिल
इससे मुराद वह असबाब हैं जो एक फ़र्द और मआशरे से वाबस्ता हैं ।
1. हवस और बिदअतें: इसमें कोई शक नही कि एक मआशरे में फ़ितना व फ़साद, ख़्वाहिशाते नफ़्स की पैरवी और बिदअतों की वजह से पैदा होते हैं। इमामे अली (अ) इस बारे में फ़रमाते हैं: ''फ़ितना और फ़साद, ख़्वाहिशाते नफ़्स की पैरवी और बिदअतों की वजह से वुजूद में आते हैं ऐसी बिदअतें कि जिनकी वजह से किताबे ख़ुदा की मुख़ालिफ़त की जाती है और बाज़ गिरोह दीने ख़ुदा के बरख़िलाफ़ दूसरे गिरोह पर हुकूमत करते हैं।'' (8)
2. हाकिम और अवाम के दरमियान ग़ैरे मुन्सेफ़ाना राबता: ये एक मुसल्लम हक़ीक़त है कि हुकूमत और लोगों के माबैन जो राबता है उसे मोतदिल होना चाहिये न ही इफ़रात से काम लेना चाहिये और न ही तफ़रीत से। अगर ये राबता ऐतेदाल की हद से तजावुज़ कर जाये तो मआशरे और मिल्लत सालिम नही रह पाती।
इमाम अली (अ) इस बारे में फ़रमाते हैं:
“जब लोग हुकूमत पर हाकिम बन जाएँ या हाकिम अपनी प्रजा पर ज़ुल्म करे, वहदते कलेमा ख़त्म हो जाती है, ज़ुल्म की निशानियाँ ज़ाहिर हो जाती है और धोखा दही दीन में ज़्यादा हो जाती है, सुन्नते रसूलल्लाह सल्ललाहो अलैहि व आलिहि वसल्लम तक पहुचने की राह मतरूक, हवा परस्ती ज़्यादा, दीन के अहकाम बंद और दिलों की बीमारी बढ़ जाती है। समाज में अज़मते हक़ की फ़रामोशी और ख़तरनाक बातिल की तरवीज के बाइस लोग निगरानी का अहसास नही करते। पस यहाँ पर नेक लोग ज़लील और बुरे लोग ताक़तवर हो जाते हैं और ख़ुदा का अज़ाब बंदों पर बहुत बड़ा और दर्दनाक होगा।” (9)
3. हक़ से बेगानगी: एक और सबब जो क़ौम के ज़वाल में शु्मार किया जाता है, हक़ से मुँह फ़ेरना और बेगाना रहना है एक समाज में जब हक़ की अहमियत ख़त्म हो जाती है तो वह समाज धीरे धीरे अपने ज़वाल के असबाब ख़ुद ही फ़राहम करता है।
इमाम अली (अ) नहजुल बलाग़ा में इस बात की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाते हैं:
“ऐ लोगो! अगर तुम हक़ की मदद करने से दामन न बचाते और बातिल को ज़लील करने में सुस्ती न दिखाते तो हरगिज वह लोग तुम्हारे बराबर नही थे, तुम्हे बर्बाद करने की ख़्वाहिश न करते और ताक़तवर तुम पर कामयाब न होते लेकिन क़ौम बनी इसराईल की हैरत में मुब्तला हो गई। अपनी जान की क़सम यह परेशानी मेरे बाद ज़्यादा हो जायेगी क्योकि तुम लोगो ने हक़ की तरफ़ पीठ की है और अपनों (नबी के सहाबियों) से दूरी की है और ग़ैरों के क़रीब हुए हो।” (10)
4. ज़ुल्म सहना: किसी भी क़ौम के ज़वाल के असबाब में से एक सबब उस क़ौम के लोगों का ज़ुल्म सहना है, जी हाँ बातिल की इताअत करना ज़ालिम के ज़ुल्म पर ख़ामोश रहना इस बात की अलामत है कि अब यह क़ौम आगे नही बढ़ सकती बल्कि इसी मरहले में दब कर रह जायेगी। इमाम अली (अ) इस सिलसिले में फ़रमाते हैं:
“ बेशक तुम से पहले की क़ौमें हलाक हो गयीं क्योकि उन्होने लोगों के हुक़ूक़ अदा नही किये पस उन्होने दुनिया को रिश्वत दे कर हासिल किया और लोगों को बातिल की राह पर ले गये और लोगों ने उनकी इताअत की।” (11)
5. बदकारी: एक समाज में रहने वाले लोग अगर किसी भी तरह के बुरे काम करते हों तो वह बुराई उस समाज और क़ौम को बोहरान में मुब्तला करती है। इमाम अली (अ) क़ौम और मिल्लत को उन ही बुरे आमाल से बचने की तलक़ीन करते हैं तो उन्हे पिछली क़ौमों में पाई जाने वाली ऐसी सिफ़ात से बचने की ताकीद करते हैं जो उन की बर्बादी का सबब बनती थीं। आप फरमाते हैं: “ अपने आप को ऐसी बलाओं से बचाओ जो गुज़िश्ता उम्मतों में उनके बुरे आमाल की वजह से वारिद हुई और उनके हालात को ख़ैर और शर के दौरान याद करो और जैसा बनने से डरो। और हर उस काम से इज्तिनाब करो जिससे गुज़िश्ता क़ौमों की कमर टूट गयी और उनकी क़ुदरत बरबाद हो गयी। एक दूसरे से कीना रखने, हसद और बुख़्ल से दिल को साफ रखो और एक दूसरे की तरफ़ पुश्त करने और एक दूसरे की मदद न करने से परहेज़ करो। ” (12)
6. लम्बी आरज़ूएं: एक और आमिल जो एक क़ौम की तबाही का सबब बनता है वह उस क़ौम के अफ़राद की लम्बी लम्बी आरज़ूएं और उम्मीदें हैं । इमामे अली (अ) ने भी नहजुल बलाग़ा में इस हक़ीक़त की तरफ़ इशारा करते हुए इरशाद फ़रमाते हैं: (......................) (13) “आप से पहले ज़िन्दगी बसर करने वाले लम्बी आरज़ूओं और मौत व अजल के पोशीदा होने के सबब हलाक हो गये यहाँ तक कि वह मौत जिसका उन्हे वादा किया गया था, उनकी तरफ़ आई जो कोई बहाना क़ुबूल नही करती, तौबा के दरवाज़े बंद कर देती है। ऐसी मौत जो अपने साथ सख़्त सज़ाओं और तल्ख़ हवादिस को लेकर आती है। ”
7. गुनाहों का आम होना: अगर एक मआशरा और क़ौम के अफ़राद एक दूसरे के साथ पेश आते हों और हर अच्छे काम को अंजाम देते हों तो वह मआशरा ज़रूर तरक़्की करता रहेगा लेकिन जिस मआशरे या क़ौम में बुराई की तरवीज होती हो और अफ़राद मुख़्तलिफ़ गुनाहों में मुब्तेला हों वह अपने लिये बर्बादी का सामान फ़राहम करते हैं। इमामे अली (अ) इस बात की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाते हैं: “ख़ुदा तुम लोगों पर रहम करे! जान लो कि तुम ऐसे दौर में ज़िन्दगी बसर कर रहे हो जिसमे हक़ बात कहने वाले अफ़राद बहुत कम हैं, ज़बान सच बोलने से आजिज़ है, हक़ को ढूढ़ने वाले ज़लील हैं, लोग गुनाहों में मुब्तेला हैं और चापलूसी में एक दूसरे का साथ दे रहे हैं उनके जवान बद अख़लाक़, बूड़े गुनाहगार और जानने वाले मुनाफ़िक़ और साथ रहने वाले मनफ़अत तलब हैं। न छोटे बड़ों का एहतिराम करते हैं और न ही सरवत मंद मोहताजों की मदद करते है। ”
पस इस मुख़्तसर मक़ाले में हमने सिर्फ़ कुछ ऐसे अहम मेयार और अवामिल की तरफ़ इशारा किया है जिनकी वजह से एक क़ौम और मिल्लत ख़त्म हो सकती है इन अवामिल को, सियासी और सक़ाफ़ती अवामिल में तक़सीम करके हर एक अवामिल को मोरिदे मुताला क़रार दिया गया है।
इमामे अली (अ) उनमें से बाज़ अवामिल को गुज़िश्ता क़ौमों की बर्बादी के सबब के तौर पर ज़िक्र करते हैं और अपने दौर में ही पाये जाने वाले अवामिल की तरफ़ इशारा करते हैं। ख़ुदा हमारी मिल्लत और क़ौम को पर तरह के ज़वाल और इनहेतात से अपने हिफ़्ज़ व अमान से रखे ।
आमीन
हवालाजात
1. ख़ुतबा 34 व 97 से इक़तिबास
2. ख़ुतबा 131
3. ख़ुतबा 192
4. फ़रहंगे आफ़ताब जिल्द 1 पेज 463
5. ख़ुतबा 16
6. ख़ुतबा 53
7. नहजुल बलाग़ा, मोहम्मद दश्ती पेज 567
8. ख़ुतबा 50
9. ख़ुतबा 216
10. ख़ुतबा 166
11. ख़ुतबा 79
12. ख़ुतबा 192
13. ख़ुतबा 147