इल्मे तजवीद और उसकी अहमियत
  • शीर्षक: इल्मे तजवीद और उसकी अहमियत
  • लेखक:
  • स्रोत:
  • रिलीज की तारीख: 19:18:24 1-9-1403

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
तजवीद के मअना बेहतर और ख़ूबसूरत बनाना है। तजवीद उस इल्म का नाम है जिससे क़ुरआने मजीद के अलफ़ाज़ व हुरूफ़ की बेहतर से बेहतर अदाएगी और आयात व कलेमात पर वक़्फ़ के हालात मालूम होते हैं। इस इल्म की सबसे ज़्यादा अहमियत यह है कि दुनिया की हर ज़बान अपनी ख़ुसूसीयात में एक ख़ुसूसीयत यह भी रखती है कि उसका तर्ज़े अदा, लहज- ए- बयान दूसरी ज़बानों से मुख़्तलिफ़ होता है और यही लहजा उस ज़बान की शीरीनी, चाशनी और उसकी लताफ़त का पता देता है। जब तक लहजा व अंदाज़ बाक़ी रहता है, ज़बान दिलचस्प व शीरीन मालूम होती है। जब वह लहज-ए- अदा बदल जाता है, तो ज़बान का हुस्न ख़त्म हो जाता है। ज़रूरत है कि किसी ज़बान को सीखते वक़्त और उसमें बातचीत करते वक़्त इस बात का लिहाज़ रखा जाये कि उसके अलफ़ाज़ उस शान से अदा हों जिस अंदाज़ से अहले ज़बान अदा करते हैं।और जहाँ तक मुमकिन हो उस लहजे को बाक़ी रखा जाये जो अहले ज़बान का लहजा है इस लिए तजवीद के बग़ैर ज़बान तो वही रहेगी मगर अहले ज़बान इसे ज़बान की बर्बादी ही कहेंगें। अरबी ज़बान में भी अलफ़ाज़ व हुरूफ़ के अलावा तलफ़्फ़ुज़ व अदा को बेहद दख़ल है और ज़बान की लताफ़त का ज़्यादा हिस्सा इसी एक बात से वाबस्ता है। इसके सीखने वाले का फ़र्ज़ है कि उन तमाम आदाब पर नज़र रखे जो अहले ज़बान ने अपनी ज़बान के लिए मुक़र्रर किये हैं और उनके बग़ैर तकल्लुम करके दूसरे की ज़बान का सत्यानास न करे। इल्मे तजवीद के कुछ ख़ास कवाइद व ऊसूल हम यहाँ पर बयान कर रहे हैं: हुरूफ़ चूँकि इल्मे तजवीद में क़ुरआने मजीद के हुऱूफ़ से बहस होती है, इस लिए इनका जानना ज़रूरी है। अरबी ज़बान में हुरूफ़े तहज्जी की तादाद 29 है। ا अलिफ़, ب बा, ت ता, ث सा, ج जीम, ح हा, خ ख़ा, د दाल, ذ ज़ाल, ر रा, ز ज़ा, س सीन, ش शीन, ص साद, ض ज़ाद, ط तोए, ظ ज़ोए, ع ऐन, غ ग़ैन, ف फ़ा, ق क़ाफ़, ك काफ़, ل लाम, م मीम, ن नून,و वाव, ه हा, ء हम्ज़ा, ى या यह हरूफ़ अपने तर्ज़े अदा के एतेबार से मुख़तलिफ़ क़िस्म के हैं। इन अक़साम के सिलसिले में बहस करने से पहले उन मक़ामात का पता लगाना ज़रूरी है, जहाँ से यह हरूफ़ अदा होते हैं और ज़िन्हें इल्मे तजवीद में मख़रज कहा जाता है। हरूफ़ के मखारिज तजवीद के आलिमों ने 29 हरूफ़े तहज्जी के लिए जो मख़ारिज बयान किये हैं, उनकी तादाद सत्ताइस है। जिन्हें पाँच मक़ामात से अदा किया जाता है। 1) दहन 2) हल्क़ 3) ज़बान 4) होंट 5) नाक दहन दहन से सिर्फ़ तीन हरूफ़ ا و ى अदा होते हैं। इस शर्त के साथ कि यह साकिन हों। हल्क़ हल्क़ के तीन हिस्से हैं, 1. इब्तदाई हिस्सा—इससे غ और خ अदा होते है। 2. दरमियानी हिस्सा---इससे ح और ع अदा होते है। 3. आख़िरी हिस्सा---इससे ه और ء अदा होते है। ज़बान हरूफ़ की अदायगी के लिहाज़ से इसके दस हिस्से हैं। 1. आख़िरे ज़बान और इसके मुक़ाबिल तालू का हिस्सा, इससे ق की आवाज़ पैदा होती है। 2. क़ाफ़ के मखरज से ज़रा आगे का हिस्सा और उसके मुक़ाबिल का तालू, इनके मिलाने से ك की आवाज़ पैदा होती है। 3. ज़बान व तालू का दरमियानी हिस्सा, इनसे ج ، ش और ى की आवाज़ पैदा होती है। 4. ज़बान का किनारा और उसके मुक़ाबिल दाहिनी या बाई जानिब की दाढ़े मिलाने से ض की आवाज़ पैदा होती है। 5. ज़बान की नोक और तालू का इब्तदाई हिस्सा, इनके मिलाने से ل की आवाज़ पैदा होती है। 6. ज़बान का किनारा और लाम के मख़रज से ज़रा नीचे का हिस्सा, इससे ن की आवाज़ पैदा होती है। 7. ज़बान की नोक का निचला हिस्सा और तालू का इब्तदाई हिस्सा, इनके मिलाने से ر की आवाज़ पैदा होती है। 8. ज़बान की नोक और अगले ऊपरी दाँतों की जड़, ज़बान को ऊपर की जानिब उठाते हुए इस तरह ज़रा ज़रा के फ़र्क़ से ط، د، ت अदा होते है। 9. ज़बान की नोक और अगले ऊपरी और निचले दाँतों के किनारों से ز، س، ص की आवाज़ पैदा होती है। 10. ज़बान की नोक और अगले ऊपरी दोनों दाँतों का किनारा, इनके मिलाने से ث، ذ، ظ की आवाज़ पैदा होती है। होंट हुरूफ़ को अदा करने के लिहाज़ से इसकी दो क़िस्में हैं। 1. निचले होंट का अन्दरूनी हिस्सा और अगले ऊपरी दाँतों का किनारा इनके मिलाने से ف की आवाज़ पैदा होती है। 2. दोनों होंटों के दरमियान का हिस्सा, यहां से ب، م، و की आवाज़ निकलती है। बस इतना फ़र्क़ है कि و की आवाज़ होंटों को सिकोड़ कर निकलती है और ب व م की आवाज़ होंटों को मिलाने से अदा होती है। नाक ग़ुन्ने वाले हरूफ़ नाक से अदा होते हैं। जो सिर्फ़ नूने साकिन और तनवीन है। शर्त यह है कि उनका ग़ुन्ने के साथ इदग़ाम किया जाये और इख़फ़ा मक़सूद हो। नून और मीमे मुशद्दद का भी इन्हीं हुरूफ़ में शुमार होता है। हुरूफ़ की किस्में हुरूफ़े तहज्जी की, अदा करने के अंदाज़, अहकाम और कैफ़ियात के एतेबार से मुख़्तलिफ़ क़िस्में हैं: 1.हुरूफ़े मद्: و، ى और ا इन हुरूफ़ को हुरूफ़े मद् उस वक़्त कहा जाता है जब वाव से पहले पेश, अलिफ़ से पहले ज़बर और या से पहले ज़ेर हो और इसके बाद हमज़ा या कोई साकिन हर्फ़ हो जैसे: سबाद के हमज़े या साकिन हर्फ़ को सबब कहते हैं और मद् के माअना आवाज़ के ख़ींचने के हैं। 2.हुरूफ़े लीन: अगर वाव और या से पहले ज़बर हो तो इन दोनो को हुरूफ़े लीन कहते हैं। लीन के माअना नर्मी है। और इन हालात में यह दोनो हुऱूफ़, मद् को आसानी से कुबूल कर लेते हैं। जैसे:خَوْفْ طَيْرْ अगर हरफ़े लीन के बाद कोई हर्फ़ साकिन भी हो तो उस हर्फ़ पर मद् लगाना ज़रूरी है।जैसे:................ मसलन कलमा ए ऐन कि इसमें या हर्फ़े लीन है और इसके बाद नून साकिन है इस बिना पर ऐन की या को मद् के साथ पढ़ना ज़रूरी है। 3.हुरूफ़े शम्सी: यह वह हुरूफ़ हैं कि जिनसे पहले अगर अलिफ़ लाम आ जाए तो मिलाकर पढ़ने में साक़ित हो जाता है, जैसे:ت‘ث‘د‘ذ‘ر‘ز‘س‘ش‘ ص‘ ض‘ ط‘ ظ‘ل‘ ن‘ इनका लाम साक़ित हो जाता है जैसेوَالطُوْرِ‘ وَالشَّمْسِ‘ وَالتّيْنِ‘ 4.हुरूफ़े क़मरी: यह वह हुरूफ़ है कि जिनके पहले अलिफ़ लाम आ जाए तो मिलाने पर भी लाम पढ़ा जाता है मगर अलिफ़ नही पढ़ा जाता। जैसे: ا‘ ب‘ ج‘ ح‘ خ‘ ع‘ غ‘ ف‘ ق‘ ك‘ م‘ و‘ ه‘ يकि इनको मिलाकर पढ़ने में लाम साक़ित नही होता।जैसे।وَالقَمَرِ‘ وَالكاظمْينَ‘ وَالمُجَاهِدِينَ‘ وَالْخَيلِ‘ وَالَْليلِ हुरूफ़ के कैफ़ियात व सिफ़ात जिस तरह हुरूफ़ मुख़्तलिफ़ मखारिज से अदा होते हैं इसी तरह हुरूफ़ की मुख़्तलिफ़ सिफ़ते भी होती हैं। जैसे: इस्तेलाअ, जहर, क़लक़ला वग़ैरह। कभी मख़रज और सिफ़त में इत्तेहाद होता है जैसे: حऔर ع और कभी मख़रज एक होता है मगर सिफ़त अलग होती है जैसे: أ और ه। 1. हुरूफ़े क़लक़लह: जीम और दाल इन हुरूफ़ की ख़ासीयत यह है कि अगर यह हुरूफ़ कलमें के आख़िर या दरमियान में हों और साकिन हों तो इन्हे इतने ज़ोर से अदा करना चाहिये कि मुतहर्रिक मालूम हों।जैसे:يَدخُلْونَ‘ لم يلد‘ 2.हुरूफ़े इस्तेलाअ: यह सात हुरूफ़ हैं ص‘ض‘ط‘ ظ‘غ‘ق‘خ‘ इन हुरूफ़ को हुरूफ़े इस्तेलाअ इसलिए कहा जाता है कि इनकी अदाएगी के लिए ज़बान को उठाना पड़ता है। जैसेخَطْ‘ يَخِصِمُون। 3.हुरूफ़ यरमलून: यह छ: हुरूफ़ हैंي‘ر‘م‘ل‘و‘ن इन हुरूफ़ की ख़ासीयत यह है कि अगर इनसे पहले तनवीन या नूने साकिन हो तो उसे तक़रीबन साक़ित कर दिया जायेगा और बाद के हर्फ़ को मुशद्दद पढ़ा जायेगा। जैसेُمحَمَّدٌ رَسُوْ لُ الله‘ مُحَمّدٍ وَّ آلِ محمد 4.हुरूफ़े हल्क़: यह छ: हुरूफ़ हैं, हे, ख़े, ऐन, ग़ैंन, हा और हमज़ा। इनको हल्क़ से अदा किया जाता है। इनसे पहले आने वाला साकिन नून वाज़ेह तौर पर पढ़ा जायेगा। हुरूफ़ को अदा करने की कैफ़ियतें हुरूफ़े तहज्जी की अदाएगी के एतेबार से चार क़िस्में हैं: 1. इदग़ाम 2. इज़हार 3. क़ल्ब 4. इख़्फ़ा 1- इदग़ाम: इसके माअना साकिन हर्फ़ को बाद वाले मुतहर्रिक हर्फ़ से मिलाकर एक कर देना और बाद वाले मुतहर्रिक हर्फ़ की आवाज़ से तलफ़्फ़ुज़ करना है। इदग़ाम की चार किस्में हैं: 1- इदग़ामे यरमलून 2- इदग़ामे मिसलैन 3- इदग़ामें मुताक़ारेबैन 3- इदग़ामे मुताजानेसैन इदग़ामे यरमलून: अगर किसी मक़ाम पर हुरुफ़े यरमलून में से कोई हर्फ़ और उससे पहले साकिन नून या तनवीन हो तो इस नून को साक़ित करके हर्फ़े यरमलून को मुशद्दद कर देंगें और इस तरह हर्फ़े यरमलून में ن का इदग़ाम हो जायेगा।जैसे اَشْهَدُ اَنْ لا اِله الا الله इस इदग़ाम में भी दो सूरतें हैं: इदग़ामे ग़ुन्ना और इदग़ामे बिला ग़ुन्ना। इदग़ामे ग़ुन्ना: इसका तरीक़ा यह है कि हुरूफ़ को मिलाते वक़्त नून की हल्की आवाज़ बाक़ी रह जाये जैसा कि यरमलून के, ي‘ ر‘ مमें होता है जैसेعليٌّ وَّ َلِيُّ الله इदग़ामे बिला ग़ुन्ना: इसमें नून बिलकुल ख़त्म हो जाता है जैसा कि रा और लाम में होता है। जैसेَلمْ يَكٌنْ َلهْ यरमलून में इदग़ाम की शर्त यह है कि नूने साकिन और हर्फ़े यरमलून एक ही लफ़्ज़ जुज़ न हो बल्कि दो अलग अलग लफ़्ज़ों में पाये जाते हों, वर्ना इदग़ाम जाएज़ न होगा। जैसा कि लफ़्ज़े ُد نْيَا. है कि इसमें या से पहले नूने साकिन मौजूद है लेकिन इदग़ाम नही होता। इदग़ामे मिसलैन: अगर दो हरफ़ एक तरह के जमा हो जायें और पहला साकिन व दूसरी मुतहर्रिक हो तो पहले को दूसरे में इदग़ाम कर देगें जैसे مِنْ نّاصرينَ लेकिन इस इदग़ाम की शर्त यह है कि पहला हर्फ़, हर्फ़े मद् न हो वर्ना इदग़ाम जाएज़ न होगा जैसेفِيْ يُوْسُفَ में इदग़ाम नही हुआ है हालाँकि في की ياसाकिन है और يوسف की ياमुतहर्रिक इसलिए कि ياहर्फ़े मद् है। इदग़ामे मुताक़ारेबैन: मुताक़ारेबैन उन दो हर्फ़ों का नाम है जो मख़रज और सिफ़त के एतेबार से क़रीब हों। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि बहुत से हुरूफ़ आपस में एक ही जैसे मखरज से अदा होते हैं और इन्हे क़रीबुल मख़रज कहा जाता है जैसे ‘ اَلَمْ نَخْلُقْ كُّمْ‘ قُلْ رَّ بِّ इदगामें मुताजानेसैन: एक जिन्स के दो ऐसे हर्फ़ जमा हो जायें जिनका मख़रज एक हो लेकिन सिफ़तें अलह अलग हों और इनमें से पहला साकिन और दूसरा मुतहर्रिक हो तो पहले को दूसरे में इदग़ाम कर दिया जायेगा जैसे د‘ط‘ ت- قَدْ تَّبَيَّنَ – قالَتْ طّاْ’ئفة- بسطْتَّ- ظ‘ذ‘ث- اذ ظّلموا‘ يلهثْ ذَّالك ب‘م- اركبْ مَّعنا د‘ج- قدْ جَّائكم 2- इज़हार: अगर साकिन नून या तनवीन के बाद हुरुफ़े हल्क़ या हुरूफ़े यरमलून में से कोई हर्फ़ हो तो, इस नून को बाक़ायदा ज़ाहिर किया जायेगा जैसेمنْ غيْره- اَنْهار- دُنْيا- قِنُوانٌ 3- क़ल्ब: अगर साकिन ن या तनवीन के बाद با आ जाए तो नून मीम से बदल जायेगा और इसे ग़ुन्ना से अदा किया जायेगा जैसे انبياءْ يَنْبُوْعاًयहाँ पर नून तलफ़्फ़ुज़ में मीम ही पढ़ा जाता है और जैसे َرحِيم ٌ بِكُم कि यहाँ तनवीन का नून भी तलफ़्फ़ुज़ में मीम पढ़ा जायेगा। 4- इख़फ़ा: हुरूफ़े यरमलून, हुरूफ़े हल्क़ और बा के अलावा बाक़ी 15 हर्फ़ो से पहले साकिन नून या तनवीन हो तो इस नून को आहिस्ता अदा किया जायेगा जैसे اِنْ كانَ‘ اِنْ شاءً‘ صفّاً صفّاً‘ انداداً तफ़ख़ीम व तरक़ीक़ * तफ़ख़ीम के मअना हैं हर्फ़ को मोटा बनाकर अदा करना। * तरक़ीक़ के मअना हैं हर्फ़ को हल्का बनाकर अदा करना। * ऐसा सिर्फ़ दो हुरूफ़ में होता है ل और ر में। रा में तफ़ख़ीम की चंद सूरतें: · ر पर ज़बर हो जैसे:َرحمن · ر पर पेश हो जैसे.نصرُ الله · ر साकिन हो लेकिन उससे पहले हर्फ़ पर ज़बर हो जैसे وَ انْحَر · ر साकिन हो लेकिन उससे पहले हर्फ़ पर पेश हो जैसे.كُرْهاً · ر साकिन हो और उससे पहले हर्फ़ पर ज़ेर हो जैसे लेकिन उसके बाद हुरूफ़े इस्तेला(ص،ض، ط، ظ، غ، ق، خ) में से कोई एक हर्फ़ जैसे.مِْرصَاداً · ر साकिन हो और उससे पहले कसरा ए आरिज़ हो जैसे.اِرْجِعِي. ر में तरक़ीक़ की चंद सूरतें: · ر साकिन हो और उससे पहले हर्फ़ पर ज़ेर हो जैसे.اِصْبِر. · ر साकिन हो और उससे पहले कोई हर्फ़े लीन हो जैसे.خَيْرْ ، طَوْرْ ل में तफ़ख़ीम की कुछ सूरतें: · ل से पहले हुरूफ़े इस्तेला में से कोई हर्फ़ वाक़ेअ हो जैसे.مَطْلَعِ الْفَجْرِ · ل लफ़्ज़े अल्लाह में हो और उससे पहले ज़बर हो जैसे.قَالَ الله · ل लफ़्ज़े अल्लाह में हो और उससे पहले पेश हो जैसे.عَبْدُ اللهِ ل में तरक़ीक़ की सूरतें: · ل से पहले हुरूफ़े इस्तेला में से कोई हर्फ़ न हो जैसे.كَلِم · ل से पहले ज़ेर हो जैसे بِسْمِ الله वक़्फ़ व वस्ल किसी इबारत के पढ़ने में इंसान को कभी ठहरना पड़ता है और कभी मिलाना पड़ता है। ठहरने का नाम वक़्फ़ है और मिलाने का नाम वस्ल है। वक़्फ़: के मुख़तलिफ़ असबाब होते हैं। कभी यह वक़्फ़ मअने के तमाम हो जाने की बेना पर होता है और कभी साँस के टूट जाने की वजह से, दोनो सूरतों में जिस लफ़्ज़ पर वक़्फ़ किया जाये उसका साकिन कर देना ज़रूरी है। वस्ल: के लिये आख़री हर्फ़ का मुतहर्रिक होना ज़रूरी है ताकि अगले लफ़्ज़ से मिलाकर पढ़ने में आसानी हो, वर्ना ऐसी सूरत पैदा हो जायेगी जो न वक़्फ़ क़रार पायेगा न वस्ल। वक़्फ़ की मुख़्तलिफ़ सूरतें हर्फ़े ت पर वक़्फ़ : इस सूरत में अगर इस तरह ت खैंच कर लिख़ी गयी है तो उसे ت ही पढ़ा जायेगा जैसे صلوات. और अगर इस तरह गोल ةलिखी गयी है तो हालत वक़्फ़ में ه हो जायेगी जैसे. صلوةٌहालते वक़्फ़ में صلوه हो जायेगी। तनवीन पर वक़्फ़: इस सूरत में अगर तनवीन दो ज़ेर और दो पेश से हो तो हर्फ़ साकिन हो जायेगा। और अगर दो ज़बर हों तो तनवीन के बदले अलिफ़ पढ़ा जायेगा मिसाल के तौर पर نُوْرٌنُوْرٍ को نُوْرْ पढ़ा जायेगा और نُوْراً को نُورا पढ़ा जायेगा। और ْ वक़्फ़ व वस्ल की ग़लत सूरतें: वाज़ेह हो गया कि वक़्फ़ व वस्ल के क़ानून के एतेबार से हरकत को बाक़ी रखते हुए वक़्फ़ करना और सुकून को बाक़ी रखते हुए वस्ल करना सही नही है। वक़्फ़ बेहरकत: इसकी मतलब यह है कि वक़्फ़ किया जाये और आख़िरी हर्फ़ को मुतहर्रिक पढ़ा जाये जैसे اياك نعبد مالك يوم الدينِ वस्ल बेसकून इसके मअने यह है कि एक लफ़्ज़ को दूसरे लफ़्ज़ से मिलाकर पढ़ा जाये लेकिन पहले लफ़्ज़ के आख़री हर्फ़ को साकिन रखा जाये जैसे. مالك يوم الديْنْको एक साथ साँस में पढ़ कर रहीम की मीम को साकिन पढ़ा जाये। वक़्फ़ के बाद ? किसी लफ़्ज़ पर ठहरने के लिये यह बहरहाल ज़रूरी है कि उसे साकिन किया जाये लेकिन उसके बाद उसकी चंद सूरतें हो सकती हैं: 1. हुरूफ़ को साकिन कर दिया जाये इसे इसकान कहते हैं। जैसे:اَحَدْ 2. साकिन करने के बाद पेश की तरह अदा किया जाये उसे इशमाम कहा जाता है। जैसे نستعِيْنْ 3. साकिन करने के बाद ज़रा सा ज़ेर का अंदाज़ पैदा किया उसे रदम कहा जाता है। जैसे عَلَيْه 4. साकिन करने के बाद ज़ेर को ज़्यादा ज़ाहिर किया जाये इसे इख़्तेलास कहते हैं। जैसे: صَالِحْ अक़सामे वक़्फ़ किसी मक़ाम पर ठहरने की चार सूरतें हो सकती हैं: 1. उस मक़ाम पर ठहरा जाये जहाँ बात लफ़्ज़ व मअना दोनो इतेबार से तमाम हो जाये जैसे.مالك يوم الدينِकि इस जुमले को बाद के जुमले اياك نعبد و اياك نستعينसे कोई तअल्लुक़ नही है। 2. उस मक़ाम पर ठहरा जाये जहाँ एक बात तमाम हो जाये लेकिन दूसरी भी उससे मुतअल्लिक़ हो जैसेمِما َرَزْقناهُم يُنْفِقُوْنْ. कि इस मंज़िल पर यह जुमला तमाम हो गया है लेकिन बाद का जुमला وَ الذِيْنَ يُمنُونَ भी उन्ही लोगों के औसाफ़ में है जिनका तज़किरा ग़ुज़िश्ता जुमले में हो चुका है। 3. उस मक़ाम पर वक़्फ़ किया जाये जहाँ मअना तमाम हो जायें लेकिन बाद का लफ़्ज़ पहले ही लफ़्ज़ से मुतअल्लिक़ हो जैसे اَلْحَمْدُ لله पर वक़्फ़ किया जा सकता है लेकिन رب العا لمين लफ़्ज़ी इतेबार से उसकी सिफ़त है, अलग से कोई जुमला नही। 4. उस मक़ाम पर वक़्फ़ किया जाये जहाँ न लफ़्ज़ तमाम हो न मअना जैसे مالك يوم الدينِमें लफ़्ज़े مالك पर वक़्फ़ कि यह बग़ैरيوم الدينِ के न लफ़्ज़ी एतेबार से तमाम है, न मअना के एतेबार से,ऐसे मौक़ों पर वक़्फ़ नही करना चाहिये। वक़्फ़े जायज़ और लाज़िम वक़्फ़ के मवाक़ेअ पर कभी कभी बाद के लफ़्ज़ से मिला देने में मआनी बिल्कुल बदल जाते हैं। जैसे م) قَيِماً) لَمْ يَجْعَلء لَهُ عِوَجاً कि.عِوَجاऔर قَيِما ًके दरमियान वक़्फ़े लाज़िम है। वर्ना मआनी मुन्क़लिब हो जायेगें। परवरदिगार यह कहना चाहता है कि हमारे क़ानून में कोई कजी नही है। और वह क़य्यिम (सीधा) है। अब अगर दोनो को मिला दिया गया तो मतलब यह होगा कि हमारी किताब में न कजी है न रास्ती। और यह बिल्क़ुल ग़लत है। ऐसे वक़्फ़ को वक़्फ़े लाज़िम कहा जाता है और उसके अलावा जुमला अवक़ाफ़ जायज़ हैं।